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________________ २२४ तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ कर whatappकककककककक क कककककककककककककककककककककककककककककककककककककक में द "नरक में जाने वाले महान् दुःखी होते हैं । तिर्यंच में शारीरिक और मानसिक दुःख बहुत उठाना पड़ता है । मनुष्य गति भी रोग, शोक आदि दुःखों से युक्त है । देवलोक देवता सूख का उपभोग करते हैं। जीव नाना प्रकार के कर्मों से बन्धन को प्राप्त होता है और धर्म के आचरण (संवर-निर्जरा) से मोक्ष प्राप्त करते हैं। राग-द्वेष में पड़ा हुआ जीव महान् दुःखों से भरे हुए संसार सागर में गोते लगाता ही रहता है--डूबता-उतराता रहता है, किन्तु जो राग-द्वेष का अन्त कर के वीतरागी होते हैं, वे समस्त कर्मों को नष्ट कर के शाश्वत सुखों को प्राप्त कर लेते हैं।" इस प्रकार परम तारक भगवान् महावीर प्रभु ने श्रुतधर्म = शुद्ध श्रद्धा का उपदेश किया, इसके बाद चारित्र-धर्म का उपदेश करते हुए फरमाया कि-- चारित्र धर्म दो प्रकार का है--१ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । इस प्रकार बारह व्रत और अन्तिम संलेखणा रूप अगार धर्म है और २-पाँच महाव्रत तथा रात्रि-भोजन त्याग रूप--अनगार धर्म है । जो अनगार और श्रावक अपने धमे का पालन करते हैं, वे आराधक होते हैं ।" (उववाई सूत्र) __ “सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है । वे बहुत काल तक जीना चाहते हैं । सभी जीवों को सुख प्रिय है और दुःख तथा मृत्यु अप्रिय है। कोई मरना अथवा दुःखी होना नहीं चाहते हैं ।" (इसलिए हिंसा नहीं करनी चाहिए) (आचाराँग सूत्र १-२-३) "भूत काल में जितने भी अरिहंत भगवन्त हुए हैं और जो वर्तमान में हैं तथा भविष्य में होंगे, उन सब का यही उपदेश है, यही कहते हैं, यही प्रचार करते हैं कि छोटेबड़े सभी जीवों को मत मारो, उन्हें अपनी अधीनता (आज्ञा) में मत रखो, उन्हें बन्धन में मत रखो, उन्हें क्लेशित मत करो और उन्हें वास मत दो। यह धर्म शुद्ध है, शाश्वत है, नित्य है । ऐसा जीवों के दुःखों को जानने वाले भगवन्तों ने कहा है। इस पर श्रद्धा कर के आवरण करना चाहिए। (आचारांग सूत्र १-४-१) "जीव अपनी पापी वृत्ति से उपार्जन किये हुए अशुभ कर्मों के कारण कभी नरक में चला जाता है, तो कभी एकेन्द्रिय और विकले न्द्रिय होकर महान् दुखों का अनुभव करता है । शुभ कर्म के उदय से कभी वह देव भी हो जाता है।" "अपने उपार्जन किये हुए कर्मों से कभी वह उच्चकुलीन क्षत्रिय हो जाता है, तो कभी नीचकुल में चांडाल आदि हो जाता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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