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________________ २२२ तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ श्रेणी में आरूढ़ हो कर भगवान् ने चारों घातीकर्मों का क्षय कर दिया और केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त कर लिया। ___ इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए। वे देव-देवियों के साथ हर्षोत्फुल्ल हो कर भगवान् के समीप आये । समवसरण की रचना हुई । भगवान् ने संक्षेप में धर्मदेशना दी जो इस प्रकार थी;-- धर्म देशना __ "यह संसार, समुद्र के समान भयंकर है। इसका कारण कर्मरूपी बीज है। कर्म ही के कारण संसार-परिभ्रमण है । अपने किये हुए कर्मों के कारण विवेक-विकल बना हुआ प्राणी, संसार रूपी समुद्र में गोते लगाता रहता है । इसके विपरीत भव्य प्रासाद का निर्माण करने के समान शुद्ध हृदयवाले मनुष्य अपने शुभ कर्मों के फलस्वरूप ऊर्ध्वगति को प्राप्त हो कर सुखी होते हैं । कर्म-बन्ध का कारण प्राणी-हिंसा है । ऐसी पाप की जननी प्राणिहिंसा कभी नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार अपने प्राणों की रक्षा में जीव तत्पर रहता हैं, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों के प्राण की रक्षा में भी तत्पर रहना चाहिए। जो अपनी पीड़ा के समान दूसरों की पीड़ा समझता है और उसे दूर करने की भावना रखता है, उसे असत्य नहीं बोल कर, सत्य वचन ही बोलना चाहिए । धन को जीव अपने प्राणों के समान प्रिय मानता है। जिसका धन हरण किया जाता है, उसे बड़ा आघात लगता है। कोई-कोई तो धन लूट जाने से प्राण भी खो देते हैं । मनुष्य के लिए धन बाह्य-प्राण है। किसी का धन हरण करना, उसके प्राण हरण करने के समान होता है । इसलिए बिना दी हुई कोई भी वस्तु कभी नहीं लेनी चाहिए । मैथुन में बहुत-से जीवों का मर्दन होता है । इसलिए मैथन का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। बुद्धिमान् पुरुष के लिए तो परब्रह्म ( प्रदाता ब्रह्मचर्य का ही सेवन करना उचित है। जिस प्रकार अधिक भार वहन करने के कारण बैल अशक्त एवं दुःखी हो जाता है, उसी प्रकार परिग्रह के कारण जीव दुःखी होकर अधोगति में जाता है। इस प्रकार प्राणातिपातादि पाँचों पाप भयंकर होते हैं। इनके दो-दो भेद हैं --- १ सूक्ष्म और २ बादर । यदि सूक्ष्म हिंसादि पाप का त्याग नहीं हो सके, तो सूक्ष्म के त्याग की भावना रखते हुए बादर पाप का तो सर्वथा त्याग ही कर देना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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