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________________ भगवान् को केवलज्ञान - केवलदर्शन की प्राप्ति ७ - संसार रूप महासागर से पार होंगे । ८- केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त होगा । ९ - भगवान् की कीर्ति समस्त देवलोक और मनुष्यलोग में व्याप्त होगी । १०- सिंहासनारूढ़ हो कर देवों और मनुष्यों की महापरिषद् में धर्मोपदेश करेंगे * 1 भगवान् को केवलज्ञान- केवलदर्शन की प्राप्ति २२१ छद्मस्थकाल में भगवान् ने इतनी तपस्या की छह मासिक तप १, चातुर्मासिक तप ९, दोमासिक ६, मासखमण १२, अर्द्धमासिक ७२, त्रिमासिक २, डेढ़मासिक २, ढ़ाईमासिक २, भद्र, महाभद्र और सर्वोतोभद्र प्रतिमा, पाँच दिन कम छहमासिक तप अभिग्रहयुक्त १, तेले १२, बेले २२६, अन्तिम रात्रि में कायोत्सर्गयुक्त भिक्षुप्रतिमा । कुल पारणे २४६ हुए। इस प्रकार दीक्षित होने के बाद साढ़े बारह वर्ष और एक पक्ष में तपस्या की । भगवान् ने एक उपवास और नित्यभक्त तो किया भी नहीं। सभी तपस्या जल-रहित -- चौविहारयुक्त की । Jain Education International भगवान् अपापा नगरी से विहार कर के जृंभक गाँव पधारे। उस गाँव के निकट ऋजुवालिका नदी थी । गाँव के बाहर नदी के उत्तर तट पर शामाक नामक गृहस्थ का खेत था । वहाँ किसी गुप्त चैत्य के निकट शालवृक्ष के नीचे बेले के तप सहित उत्कटिक आसन से आतापना लेने लगे। वैशाख शुक्ला दसमी का दिन था । दिन के चौथे प्रहर में हस्तोत्तर (उत्तरा फाल्गुनी ) नक्षत्र एवं विजय मुहूर्त में शुक्लध्यान में प्रविष्ट हुए, क्षपक 3. * ग्रन्थकारों का मत है कि ये दस स्वप्न भगवान् ने प्रव्रज्या धारण की, उसके बाद - आठ नौ मास में ही–देखे । किंतु भगवती मूत्र में लिखा है कि- " समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालिया अंतिमराइयंसि इमे दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे " इसमें 'छद्मस्थकाल की अन्तिम रात्रि' कहा है । ग्रन्थकार अर्थ करते हैं-" छद्यस्थकाल की रात्रि का अन्तिम भाग परन्तु यह अर्थ उचित नहीं लगता । रात्रि के अन्तिम भाग में आये हुए स्वप्न के फल ग्यारह बारह वर्ष में मिले - यह मानने में नहीं आता । भगवती सूत्र के फलादेश के शब्द देखते तो शीघ्र फल मिलना ही ज्ञात होता है । सूत्रकार 'मोहमहापिशाच को पराजित कर देना' लिखे और उसका फल वर्षों बाद मिले- यह विश्वसatr नहीं लगता । इसीलिए हमने इन्हें यहाँ स्थान दिया है। आगे ज्ञानी कहे वही सत्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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