SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर चरित्र - भाग ३ इस रात्रि के पिछले प्रहर में मुहूर्तभर रात्रि शेष रहने पर भगवान् ने दस स्वप्न २२० कककककककककक देखे । यथा- ककककककककककककककककककककककककूद १ - एक महान् भयंकर पिशाच को जो तालवृक्ष के समान लम्बा था, इस पिशाच को स्वयं ने पछाड़ कर पराजित करते देखा । २- एक श्वेतपंख वाले पुंसकोकिल ( नर कोयल) को देखा । ३ - चित्र-विचित्र पंखों वाले एक महान् पुंसकोकिल को देखा । ४ - सर्व यत्नमय युगल (दो) माला देखी । ५ - श्वेत वर्ण का महान् गोवर्ग ( गायों का झुण्ड ) देखा । ६- एक पद्म-सरोवर देखा जो चारों ओर से पुष्पों से सुशोभित था । ७- एक महान् समुद्र को तिर कर अपने को पार होते हुए देखा । जिसमें हजारों तरंगे उठ रही थी । ८ - जाज्वल्यमान् सूर्य को देखा । ९ - मानुषोत्तर पर्वत को वैडूर्य मणि जैसी अपनी आँतों से आवेष्ठित-परिवेष्ठित देखा | १० - मेरुपर्वत की मन्दर- चूलिका पर रहे हुए सिंहासन पर अपने आपको बैठे देखा ! उपरोक्त दस स्वप्न भगवान् को आये। संयमी जीवन के साढ़े बारह वर्षों में भगवान् को प्रथम और अन्तिम बार यह निद्रा खड़े-खड़े ही दर्शनावरणीय के उदय से आ गई । वे जाग्रत हुए। इन स्वप्नों और इनके फल का उल्लेख भगवती सूत्र श. १६ उ. ६ में है । फल उल्लेख इस प्रकार हुआ है; -- १- भगवान् ने एक महान् बलिष्ठ पिशाच को पछाड़ कर पराजित किया देखा, इसका फल यह हुआ कि उन्होंने मोहनीय महा-कर्म को समूल नष्ट कर दिया । २- परम शुक्क ध्यान प्राप्त करेंगे । ३–स्वसमय-परसमय रूप विचित्र प्रकार के भावों से युक्त द्वादशांगी का उपदेश देंगे । ४ - दो प्रकार के धर्म का उपदेश देंगे - अगारधर्म और अनगारधर्म । ५-चार प्रकार का श्रमणप्रधान संघ स्थापित करेंगे - १ श्रमण २ श्रमणी ३ श्रावक और ४ श्राविका । ६- चार प्रकार के देवों से--भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक-सेवित होंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy