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२१७ ဖုန်းမှ ၆၀၀ ၈၈၈၈၈၈၈၈၈၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀နီးနီး
ग्वाले ने कानों में कीलें ठोकी
। वन्दनादि भक्ति करते रहे । स्वादिदत्त ने सोचा कि ये महात्मा कोई विशिष्ट शक्ति सम्पन्न हैं, इसीसे देव इनकी भक्ति करते हैं । वह जिज्ञासा लिये हुए भगवान् के पास आ कर पूछने लगा ;--
"भगवन् ! इस सारे शरीर और अंगोपांग में जीव किस प्रकार है ?"
"शरीर में रहा हुआ जीव "अहं" (मैं) हूँ--ऐसा जो मानता है, वही जीव है "-भगवान् ने कहा।
--"भगवान् ! वह जीव कैसा है "--पुनःप्रश्न --"हाथ-पाँव और मस्तकादि से भिन्न जीव अरूपी है '--भगवान् का उत्तर । --"वह अरूपी जीव किस स्थान पर रहा है ? मुझे स्पष्ट दिखाइए।"
---' जीव इन्द्रियों से जाना-देखा नहीं जा सकता । यह इन्द्रिय का नहीं, अनुभव का विषय है"--भगवान् ने कहा।
स्वादिदत्त ने जान लिया कि भगवान् तत्त्वज्ञ हैं । उसने भगवान् की भक्तिपूर्वक वन्दना की।
वहाँ से भगवान् जंभक गाँव पधारे । वहाँ इन्द्र आया और वन्दना कर के कहने लगा; --''भगवन् ! अब थोड़े ही दिनों में आपको केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो जायगा।"
वहाँ से भगवान् मेढ़क ग्राम पधारे । वहाँ चमरेन्द्र ने आ कर वन्दना की।
ग्वाले ने कानों में कीलें ठोकी मेढक ग्राम से विहार कर के भगवान् षणमानी ग्राम पधारे और ग्राम के बाहर उद्यान में प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ हो गए । यहाँ एक घोर असातावेदनीय कर्म भगवान् के उदय में आया । वासुदेव के भव में भगवान् ने जिस शय्यापालक के कानों में उबलता हुआ शीशा डलवाया था, वह पापकर्म यहाँ उदय में आया। उस शय्यापालक का जीव भव-भ्रमण करता हुआ मनुष्य भव पाया। वह इसी गाँव में गोपालक था । गोपालक भगवान् के निकट अपने चरते हुए बैल छोड़ कर गायों को दुहने के लिए गाँव में चला गया । दुध दुहने के बाद वह लौटा, तो उसे अपने बैल वहाँ नहीं मिले। उसने भगवान् से पूछा-“मेरे बैल कहाँ हैं ?" भगवान तो ध्यानस्थ थे। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, तो ग्वाला क्रोधित हो गया। वह आक्रोश पूर्वक बोला- .
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