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तीर्थंकर चरित्र - भाग ३
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'अरे ओ पापी ! मेरे बैल कहाँ है ? बोलता क्यों नहीं ? तेरे ये कान है, या खड्डे ?"
जब भगवान् की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला, तो उसका क्रोध उग्रतम हो गया । उसने काश की तीक्ष्ण सलाई ले कर भगवान् के दोनों कानों में-- इस प्रकार ठोक दी. जिससे दोनों सलाइयों की नोक परस्पर जुड़ गई। इसके बाद कर्णरन्ध्र के बाहर रहे हुए सिरों को काट कर कानों के बराबर कर दिये, जिससे किसी को दिखाई नहीं दे । इतना कर के वह चला गया। इस घोर उपसर्ग से भगवान् को महा वेदना हुई, परन्तु भगवान् अपने ध्यान में मेरु के समान अडोल ही रहे ।
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वहाँ से विहार कर के प्रभु मध्य अपापा नगरी पधारे और पारणा लेने के लिए 'सिद्धार्थ' नामक व्यापारी के घर में प्रवेश किया। उस समय सिद्धार्थ के यहाँ उसका मित्र 'खरक' नामक वैद्य बैठा था । भगवान् के पधारने पर सिद्धार्थ ने भगवान् की वन्दना की और भक्तिपूर्वक आहार दिया । खरक वैद्य भगवान् की भव्य आकृति देखता ही रहा । उसे लगा कि इन महात्मा के मुखारविंद पर पीड़ा की झांई दिखाई दे रही है । उसने सिद्धार्थ से कहा--" मित्र ! इन महात्मा के शरीर में कहीं कोई शूल लगा हुआ है। उसकी पीड़ा इनके भव्य मुख पर स्पष्ट झलक रही है ।"
सिद्धार्थ ने कहा--" यदि शल्य हैं, तो तुम देखों और बताओ कि किस स्थान पर शल्य लगा है ।"
वैद्य ने भगवान् के शरीर का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन किया और बताया कि 'किसी दुष्ट ने इन महामुनिश्वर के कानों में कीलें ठीक दी है ।"
भगवान् चले गये । उसके बाद वैद्य ने कहा; --
"हा, वह मनुष्य था या राक्षस ?" वैद्य को कीलें ठोकने वाले की नीचता का विचार हुआ ।
" मित्र ! तुम उस नीच की बात छोड़ो और ये कीलें निकाल कर इन महर्षि की पीड़ा मिटाओ। इनकी पीड़ा मेरे हृदय का शूल बन गई है। इनकी पीड़ा के निवारण के साथ ही मुझे शान्ति मिलेगी। यदि इस कार्य में मेरा सर्वस्व भी लग जाय तो मुझे चिन्ता नहीं होगी, परन्तु जब तक इन महर्षि की वेदना नहीं मिटेगी, तब तक मेरा हृदय भी अशान्त ही रहेगा । यदि मेरे और तुम्हारे प्रयत्न से भगवान् के दोनों शूल निकल गए और इन्हें शान्ति मिल गई, तो हम दोनों भव-सागर से पार हो जावेंगे ।"
वैद्य बोला - - " मित्र ! ये महात्मा क्षमा के सागर और परम श्रेष्ठ महामुनि हैं ।
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