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________________ चन्दनबाला चरित्र ४४ राजकुमारी से दासी २११ .-.-.-.-.-.. ..........-.-.-.-.-.-.-.-.-. .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. सारा नगर लूटा जा रहा था। नागरिकजन नगर छोड़ कर भाग रहे थे। जिसने अवरोध करने का साहस किया, वह मार डाला गया। कई बन्दी बना लिये गये। एक सैनिक राज्य के अन्तःपर में घसा और भयाक्रान्त महारानो धारिणा और उसका पूत्रो वसुमती को ले कर चल दिया। महारानी धारिणी के रूम पर मुग्न हा कर उसने कहा कि “मैं तुम्हें अपनी भार्या बनाऊँगा और कन्या को कौशाम्बी के बाजार में बच दूंगा।" महारानी इस विपरीत परिस्थिति से अत्यन्त दुःखी थी और जब हरणकर्ता की दुर्भावनापूर्ण बात सुनी, तो उसके हृदय में विष-बुझे तीर के समान लगी । वह एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती थी। उसने सोचा- ऐसे शब्द सुनने के पूर्व ही मेरी मृत्यु क्यों नहीं हो गई। मैं अब भी जीवित क्यों हूँ ? यदि अब भी ये प्राण नहीं निकले, तो मुझे बरबस-आत्मघातपूर्वक निकाल देना पड़ेगा।" इस प्रकार सोचते हुए गोकातिरेक से उसके प्राण निकल गए और वह निर्जीव हो गई । माता के देहावसान से वसुमती निराधार हो गई। बालवय और महान् विपत्ति के पपय एकमात्र आधार माता ही थी वह भी नहीं रहो । वह धैर्यवती बाला दिग्मूढ़ हो गई । उसके हृदय एवं गले में कोई गोला फँस गया हो-ऐसा लगा। उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। रानी की मृत्यु देख कर संनिक भी सहम गया। अब उसे लगा कि मेरो नीचतापूर्ण मनोभावना जान कर ही यह सती मरी है । मैने बहुत बुरा किया। इसी प्रकार यदि यह लड़की भी मर गई, तो मेरे हाथ क्या रहेगा ? मैं दरिद्र ही रह जाऊँगा । अब इस लड़की को बेच दूं । सुन्दर लड़की का मूल्य अधिक ही मिलेगा। इस प्रकार विचार कर उमने वसुमती को सान्त्वना दी और कौशाम्बी के बाजार में ले आया । वहाँ दासदासो बिकते थे । वसुमती को विक्रयस्थल पर खड़ो रख कर वह ग्राहक की प्रतीक्षा करने लगा। इतने में किसी कारण से 'धनावह ' सेठ उधर से निकले । उन्होंने देखा कि एक रूपवती उच्च कुल की बाला बिकने के लिए खड़ी है । लगता है कि " दुर्भाग्य के उदय से यह अपने माता-पिता से बिछुड़ गई है । यदि यह किसी नीच मनुष्य के हाथ लग जाएगी तो इसका जीवन बिगड़ जाएगा। मैं इसे ले लूंगा, तो यह बच जायगी और मेरे यहाँ पुत्री के समान रहेगो । संभव है कभी इसके माता-पिता भी मिल जाय ।" सेठ ने मंहमांगा __* "त्रि. श. पु.च" और महावीर चरियं' में ऐसा ही लिखा है और 'चउपन्न महापुरिम चरित्र' में भी ऐसा ही है--"सोयाइरेएण विवण्णा धारिणी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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