________________
नमूची की नीचता और तपस्वी का कोप
तपस्वीराज श्री संभूतिमुनिजी ने मासखमण के पारण के लिये हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया । वे निर्दोष आहार के लिये भ्रमण कर रहे थे कि प्रधानमन्त्री नमूची की दृष्टि उन पर पड़ी । उन्हें देखते ही उसके मन में खटका हुआ । उसने सोचा 'यह चाण्डाल मेरे गुप्त-भेद खोल देगा, तो मेरा यहाँ मुँह दिखाना असंभव हो जायगा । इसलिये इस काँटे को यहाँ से निकाल देना ही ठीक होगा ।' उसने अपने सेवकों को निर्देश दिया--" यह साधु नगर के लिये दुःखदायी है । शत्रु का भेदिया है । इसे मार-पीट कर नगर के बाहर निकाल दो ।" जो स्वभाव से ही दुर्जन और पापी होते हैं । उन्हें साधुजनों पर भी सन्देह होता है । वे उपकारी के अपने पर किये हुए उपकार भी भूल जाते हैं । नमूची को उन्होंने मृत्यु-भय से बचाया था । परन्तु नमूची के सेवकों ने तपस्वी सन्त पर निर्मम प्रहार किये । उन्हें धकेल कर नगर से बाहर निकाल दिया और बाहर निकाल कर भी पीटते रहे । इस अकारण शत्रुता से तपस्वी सन्त को भी क्रोध आ गया । प्रशान्त-कषाय उदयभाव से भभक उठी । संज्वलन क्रोध ने अपना प्रभाव बताया । जिस प्रकार अग्नि के ताप से शीतल जल भी उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार तपस्वी महात्मा भी नमूची के पाप से संतप्त हो गये । तपस्वी की आंखों से तेज किरणें निकली, मुख से तेजोलेश्या निकल कर गगन-मण्डल में व्याप्त हो कर नगर में प्रसरी । नागरिकजन भयभीत हुए । महाराजा सनत्कुमारजी भी चिन्तित हुए । राजा और प्रजा तेजोलेश्या के उत्पत्ति स्थान ऐसे मुनिराज के समीप आ कर उन्हें शान्त करने के लिए प्रार्थना करने लगे । महाराजा सनत्कुमारजी ने निवेदन किया-
"
'भगवन् ! आपको उपसर्ग देने वाला तो नीच व्यक्ति है ही, किन्तु आप तो महात्मा हैं, सभी जीवों पर अनुकम्पा करने वाले हैं और सभी का हित चाहने वाले हैं । आप पापियों, दुष्टों और अहित करने वालों का भी हित करते हैं, फिर कुपित हो कर, तेजोलेश्या फैला कर लाखों जीवों को पीड़ित करना आपके लिए उचित कैसे हो सकता ? सन्त तो क्षमा के सागर होते हैं । आप भी क्षमा धारण कर के सभी जीवों को अभयदान दीजिये ।"
राजा की प्रार्थना व्यर्थ गई । तब निकट ही ध्यानस्थ रहे हुए चित्रमुनि, ध्यान पाल कर संभूति मुनि के पास आये और मधुर वचनों से समझा कर उनका क्रोध शान्त किया । तेजोलेश्या शांत हो गई। सभी लोग प्रसन्नता पूर्वक वन्दना नमस्कार कर के स्वस्थान लौट गये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
f
www.jainelibrary.org