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________________ तीर्थकर चरित्र भाग ३ . स्वर में अपना स्वर मिला कर गाने लगे। उनके संगीत ने पोल खोल दी । परीक्षक लोग भाँप गये और उन पर रहा हुआ वस्त्र का आवरण खींच कर उन्हें खुला कर दिया। लोग पहिचान गए कि ये वे ही चाण्डाल हैं, जिन्हें इस नगर से सदा के लिये निकाल दिया था। ये हीनकुल के अछूत--चाण्डाल हमें भी अछूत बनाना चाहते हैं। हमारी जाति को बिगाड़ने के लिए तत्पर हैं। लोग उन्हें पीटने लगे। बड़ी कठिनाई से बच कर वे नगर के बाहर निकले। कठोर मार से उनका सारा शरीर पीड़ित हो गया था। बड़ी कठिनाई से उठते-गिरते और थरथर धूजते हुए वे उद्यान में आये । वे सोचने लगे-“रूपयौवन और उत्कृष्ट कला के स्वामी होते हुए भी हमारी जातिहीनता हमारा उत्थान नहीं करती और हमें अपमानित करवा कर दण्डित करवाती है। हमारे शरीर की उत्पत्ति अधमाधम कुल में हुई, यही हमारे लिए विपत्ति का कारण बनी है। धिक्कार है इस शरीर को । अब हमें इस अधम शरीर को समाप्त कर देना चाहिए । इस जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है।" वे आत्मघात का निश्चय कर के दक्षिण-दिशा की ओर चले । चलते-चलते वे एक बड़े पहाड़ के निकट पहुंच गए। उस पहाड़ पर चढ़ कर उसके खड़े कगार पर से गिर करा (भृगुप्रपात कर) मरने का उन्होंने संकल्प किया। वे ऊपर चढ़े। उनकी दृष्टि एक ध्यानस्थ रहे हुए महात्मा पर पड़ी। उन्होंने सोचा--" मरने से पूर्व महात्मा की भक्ति कर लें। ऐसा शुभ अवसर क्यों खोएँ ।" वे महात्मा के चरणों में झुक कर उनके सम्मुख हाथ जोड़ कर खड़े रहे। ध्यान पूर्ण होने पर महात्मा ने उनके आगमन का कारण पूछा । उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई और मरने का संकल्प भी बता दिया। महात्मा ने कहा "तुम आत्मघात कर के इस दुर्लभ मनुष्यभव को नष्ट क्यों कर रहे हो ? मरने से शरीर तो नष्ट हो जायगा, परन्तु पाप नष्ट नहीं होंगे। यदि तुम्हें पाप नष्ट करना है, तो साधना कर के शेष जीवन को सफल बनाओ । इससे तुम्हारे पाप झड़ेंगे और सुख की सामग्री उत्पन्न होगी।" तपस्वी मुनिराज के धर्मोपदेश ने अमृत के समान परिणमन किया। दोनों बन्ध प्रतिबोध पाये और महात्मा से ही निग्रंथ-साधुता की दीक्षा ले कर संयम और तप की आराधना करने लगे और गुरुदेव से ज्ञानाभ्यास भी करने लगे। कालान्तर में वे गीतार्थ सन्त हो गए । प्रामानुग्राम विचरते हुए वे हस्तिनापुर आये और उसके निकट के उद्यान में रह कर साधना करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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