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________________ पुनः अनार्य देश में १८३ पुनः अनार्य देश में प्रभु ने अपने कर्मों की प्रगाढ़ता का विचार कर पुनः वज्रभूमि सिंहभूमि एवं लाट आदि म्लेच्छ देशों में प्रवेश किया। वहाँ के म्लेच्छ लोग परमाधामी देव जैसे क्रूर एवं निर्दय थे। वे लोग भगवान् को विविध प्रकार के उपद्रव करने लगे । पूर्व की भाँति इस बार भी कुत्तों को झपटा कर कटवाया गया। परन्तु भगवान् तो कर्म-निर्जरार्थ ही इन उपद्रवों के निकट पधारे थे और ऐसे उपद्रवों को अपने कर्म-रोग को नष्ट करने में शल्यचिकित्सा की भाँति उपकारक मानते थे । भगवान् इस प्रकार उपद्रव करने वालों को अपना हितैषी समझते थे। भगवान् अनन्त बली थे। उन उपद्रवकारियों को चिटी के समान मसलने की उनमें शक्ति थी। उनके पदाघात से पर्वतराज भी ढह सकते थे। परन्तु कर्म-सत्ता के आगे किसी का क्या बस चल सकता है ? देवेन्द्र शक्र ने सिद्धार्थ व्यंतर को इसलिये नियुक्त किया था कि वह उपद्रवों का निवारण करे, परन्तु वह तो मात्र गोशालक को उत्तर देने का ही काम करता रहा । 'उपद्रव के समय तो पता ही नहीं, वह कहाँ होता था। बड़ेबड़े देव और इन्द्र भगवान् के भक्त थे और चरण-वन्दना करते थे। परन्तु कर्मशत्रु के आगे तो वे भी विवश थे। ग्रीष्मऋतु के घोर ताप और शीतकाल की असह्य शीत को भगवान् बिना आश्रयस्थान के वृक्ष के नीचे या खंडहरों में सहन करते रहे और धर्म-जागरण करते छह मास तक उस भूमि में विचरे और नौवाँ चातुर्मास उस प्रदेश में ही किया । तिल के पुष्पों का भविष्य सत्य हुआ अनार्य देश का चातुर्मास पूर्ण कर भगवान् ने गोशालक सहित पुनः आर्य-क्षेत्र की ओर विहार किया और सिद्धार्थ ग्राम पधारे । वहां से कुर्म-ग्राम की ओर पधार रहे थे। मार्ग में गोशालक ने तिल का एक बड़ा पौधा देखा और भगवान् से पूछा-"भगवन् ! तिल का यह पौधा फलेगा? इसके सात फूल हैं, इन फूलों के जीव मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ?" भवितव्यतावश गोशालक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने स्वयं ही कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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