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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३
कर के चातुर्मास पूर्ण किया। यह छद्मस्थकाल का सातवाँ चातुर्मास था । विहार कर के भगवान् ने नगर के बाहर पारणा किया और कुंडक ग्राम पधारे । वहां वासुदेव के मन्दिर के ए कान्त कोने में ध्यानस्थ हो गए । गोशालक अपनी प्रकृति के अनुसार प्रतिमा के साथ अशिष्टता करने लगा। पुजारी ने देखा तो दंग रह गया । वह गाँव के लोगों को बुला लाया। लोगों ने उसकी अधमता देख कर खूब पीटा । एक वृद्ध ने उसे छुड़ाया । भगवान् कुंडक ग्राम से विहार कर मर्दन गाँव पधारे और बलदेव के मन्दिर में कायोत्सर्ग युक्त रहे। यहाँ भी गोशालक अपनी नीच मनोवृत्ति से पीटा गया । भगवान् मर्दन गाँव से चल कर बहशाल गाँव के शालवन उद्यान में पधारे । उस उद्यान में शालार्या नाम की एक व्यन्तरी थी। उसने भगवान को अनेक प्रकार के उपसर्ग कर कष्ट दिये। वह अपनी पापी-शक्ति लगा कर हार गई, परन्तु भगवान् को अपनी साधना से नहीं डिगा सकी। अन्त में क्षमा याचना कर के चली गई । वहाँ से चल कर भगवान् लोहार्गल नगर पधारे। जितशत्रु वहाँ राज करता था। उसकी अन्य राजा से शत्रुता थी। इसलिये राज्य-रक्षक सतर्क रहते थे। किसी अपरिचित मनुष्य को देख कर भेदिये होने का सन्देह करते थे। भगवान् और गोशालक को देख कर पूछताछ करने लगे। भगवान् तो मौन रहे और गोशालक भी नहीं बोला । उन्हें शत्रु का भेदिया जान कर, बन्दी बना कर राजा के सामने ले गये। उस समय अस्थिक ग्राम से उत्पल नामक भविष्यवेत्ता वहां आया हुआ था। उसने प्रभु को पहिचान कर वन्दना की और राजा को भगवान् का परिचय दिया। राजा ने भगवान् को तत्काल मुक्त किया, क्षमा याचना की और वन्दना की।
लोहार्गल से चल कर भगवान् पुरिमताल नगर पधारे और शकटमुख उद्यान में ध्यानस्थ हो गये। यहाँ ईशानेन्द्र भगवान् की वन्दना करने आया । पुरिमताल से भगवान् ने उष्णाक नगर की ओर विहार किया । उधर से एक बरात लौट रही थी। नवपरणित वर-वधू अत्यन्त कुरूप थे। उन दोनों का विद्रुप देख कर गोशालक ने हँसी उड़ाई“विधाता की यह अनोखी कृति है और दोनों का सुन्दर योग तो सचमुच दर्शनीय है। इनका तो सर्वत्र प्रदर्शन होना चाहिये ।" इस प्रकार बार-बार कह कर हंसने लगा। गोशालक की अशिष्टता एवं धृष्टता से बराती कुपित हुए । उसे पकड़ कर पीटा और बाँध कर एक झाड़ी में फेंक दिया। उनमें से एक वृद्ध ने सोचा-'यह मनुष्य उन महात्मा का कुशिष्य होगा।' इस विचार से उसने उसे छोड़ दिया। भगवान् गोभूमि पधारे और वहाँ से राजगृह पधारे । वहाँ आठवाँ वर्षाकाल रहे । चातुर्मासिक तपस्या कर के वह वर्षाकाल पूरा किया और नगर के बाहर पारणा किया।
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