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________________ व्यन्तरी का असह्य उपद्रव ပုန် အဖန်ဖန်ဖနီ १८१ ၀၀၀၀၀ ၆၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀ व्यन्तरी का असह्य उपद्रव ग्रामक गाँव से विहार कर के भगवान् शालिशीर्ष गाँव पधारे और उद्यान में कायुत्सर्ग कर के ध्यान में लोन हा गए । माघमास को रात्रि थी । शीत का प्रकोप बढ़ा हुआ था। उस उद्यान में कटपूतना नामक व्यन्तरी का निवास था । यह व्यन्तरी भगवान् के त्रिपृष्ट वासुदेव के भव विजयवती नाम की रानी थी। इसे वासुदेव की ओर से समुचित आदर एवं अपनत्व नहीं मिला। इसलिए वह रुष्ट थी । और रोष ही में मृत्यु पा कर भव-भ्रमण करतो रही। पिछले भव में मनुष्य हो कर बालतप करती रही । वहाँ से मृत्यु पा कर वह व्यन्तरी बनी । पूर्वभा के वैर तथा यहाँ भगवान् का तेज सहन नहीं कर सकने के कारण वह तपस्विनो रूप बना कर प्रकट हुई। उसने वायु विकुर्वणा की और हिम के समान अत्यन्त शीतल पवन चला कर भगवान् को असह्य कष्ट देने लगी। वह वायु शूल के समान पसलियों का भेदने लगा । तापसी बनी हुई व्यन्तरी ने अपनी लम्बी जटा में पानी भरा और अन्तरिक्ष में रह कर जटाओं का पानी भगवान् के शरीर पर छिड़कने लगी। शीतल पानी की बौछार और शीतलतम वायु का प्रकोप । कितनी असह्य पीड़ा हुई होगी भगवान् को? प्रभु के स्थान पर यदि कोई अन्य पुरुष होता, तो मर ही जाता। यह भीषण उपद्रव रातभर होता, परन्तु भगवान् को अपनी धर्मध्यान की लीनता से किञ्चित् मात्र भी चलित नहीं कर सका । वे पर्वत के समान अडोल ही रहे । धर्मध्यान की लीनता से अवधिज्ञानावरणीय कर्म की विशेष निर्जरा हुई, जिससे भगवान् के अवधिज्ञान का विकास हुआ और वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे । रातभर के उपद्रव के बाद व्यन्तरी थक गई। उसने हार कर भगवान् से क्षमा याचना की और वहाँ से हट गई। शालीशीर्ष से विहार कर प्रभु भद्रिकापुर पधारे और छठा चौमासा बहीं कर दिया। विविध अभिग्रह से युक्त भगवान् ने यहां चौमासी तप किया। छह मास तक इधरउधर भटकने के बाद गोशालक पुनः भगवान् के समीप आ कर साथ हो गया । वर्षाकाल बीतने पर भगवान् ने विहार किया और नगर के बाहर पारणा किया। भगवान् प्रामानुग्राम विहार करने लगे। गोशालक साथ ही था। आठ मास बिना उपद्रव के ही व्यतीत हो गए। वर्षावास आलंभिका नगरी में किया और चौमासी तप x पूज्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने 'जैनधर्म के मौलिक इतिहास' भाग १ पृ. ३८४ में 'परम अवधिज्ञान' लिखा । यह समझ में नहीं आया। क्योंकि परमावधि ज्ञान तो एक लोक ही नहीं, असंख्य लोक हो, तो देखने की शक्ति रखता है और अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त करवा देता है। यह छद्मस्थकाल का छठा वर्ष था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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