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तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ किककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककपवलय
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गोशालक पछताया
प्रभु से पृथक् हो कर गोशालक आगे बढ़ा। वह भयंकर वन था । उसमें डाकूओं का विशाल समूह रहता था। डाकू-सरदार बड़ा चौकन्ना और सावधान रहता था। उसके भेदिये ऊँचे वृक्ष पर चढ़ कर पथिकों और सैनिकों की टोह लेते रहते । यदि कोई पथिक दिखाई देता, तो लूटने की सोचते और सैनिक दिखाई देते, तो बचने का मार्ग सोचते । गोशालक को देख कर भेदिये ने कहा कि--"इस नंगे भिखारी के पास लूटने का है ही क्या ? इसे जाने देना चाहिये ।" परन्तु उसके साथी ने कहा--" यदि भिखारी के भेष में राज्य का भेदिया हआ, तो विपत्ति में पड़ जाएंगे। इसलिए इसे छोड़ना तो नहीं चाहिये।" निकट आने पर डाकूओं ने उसे पकड़ा और उस पर सवार हो कर उसे दौड़ाया। जब गोशालक मूच्छित हो कर गिर पड़ा, तब उसे मारपीट कर वहीं छोड़ गए। वह निष्प्राण जैसा हो गया। जब गोशालक की मूर्छा टूटी और चेतना बढ़ी, तब उसे विचार हुआ-- "गुरु से पृथक् होते ही मेरी इतनी दुर्दशा हो गई, बस मृत्यु से बच गया। इतनी भीषण दशा तो गुरु के साथ रहते कभी नहीं हुई थी। उनकी सहायता के लिये तो इन्द्र भी आ जाता था। परन्तु मेरी सहायता के लिये कोई नहीं आया। मैने भूल की जो गुरु का साथ छोड़ा । अब भगवान् को पुनः प्राप्त कर उन्हीं के साथ रहना हितकर है । मैं भगवान् की खोज करूँगा और उन्हीं के साथ रह कर जीवन व्यतीत करूंगा।
भगवान् विशाला नगरी पधारे और अनुमति ले कर किसी लुहार की शाला में एक ओर ध्यानस्थ हो गए। उस घर का स्वामी पिछले छह महीने से रोगी था। उसकी कर्मशाला बन्ध थी । जब वह रोगमुक्त हो कर अपनी लोहकार शाला में आया, तो भगवान् को देखते ही चौंका। उसको भगवान् का अपने यहाँ रहना अपशकुन लगा । वह घण उठा कर भगवान् को मारने को तत्पर हुआ। उधर शक्रेन्द्र का उपयोग इधर ही था। वह तत्काल आया और उसी घण से उसका मस्तक फोड़ कर मार डाला । शक्रेन्द्र भगवान् की वन्दना कर के स्वस्थान चला गया ।
विशाला से चल कर भगवान् ग्रामक गांव के बाहर पधारे और विभेलक उद्यान में यक्ष के मन्दिर में कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गए। यक्ष सम्यक्त्वी था । उसने भगवान् की वन्दना की।
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