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________________ अग्नि से भगवान् के पाँव झुलसे १७७ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका हरिद्रु से विहार कर भगवान् लांगल गाँव पधारे। गोशालक भी साथ हो गया था । वासुदेव के मन्दिर में प्रभु कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गए। गाँव के बालक खेलने आये, तो गोशालक ने विकृत मुंह कर के उन्हें डराया। वे भयभीत हो कर भागे । उनमें से कई गिर गये । किसी के सिर में घाव हो गया, किसी के नाक में से रक्त बहने लगा और किन्हीं का हाथ-पाँव टूटा । सभी रोते-रोते अपने-अपने पिता के पास पहुँचे । उनके पिता क्रुद्ध हो कर आये और गोशालक को खूब पीटा । भगवान् की ओर देख कर किसी ने कहा--"यह इन महात्मा का शिष्य है। इसे छोड़ दो।" लोग लौट गए। ___ लांगल ग्राम से विहार कर भगवान् आवर्त्त ग्राम पधारे और बलदेव के मन्दिर में ध्यानस्थ हुए । यहाँ भी गोशालक ने अपनी अनियंत्रित चंचल प्रकृति के कारण बालकों को डराया और मार खाई । एक ने कहा-- “इसे क्यों मारते हो ? इसके गुरु को ही मारो। वही अपराधी है । वह इसे क्यों नही रोकता । अपने सेवक का अपराध चुपचाप देखते रहना भी अपराध का समर्थन है।" __ लोग प्रभु को मारने के लिए उस ओर बढ़े। इतने में निकट रहा हुआ कोई जिन भक्त व्यन्तर बलदेव की प्रतिमा में घुसा और हल उठा कर उन्हें मारने झपटा । लोग भयभीत हो कर चकित हुए और प्रभु के चरणों में गिर कर क्षमा मांगने लगे। आवर्त से विहार कर भगवान् चोराक ग्राम पधारे और किसी एकांत स्थान में प्रतिमा धारण कर के रहे। गोशालक भिक्षा के लिए गया। उसने देखा कि कुछ मित्र मिल कर भोजन बना रहे हैं। अभी भोजन बनने में कुछ समय लगेगा । वह छुप कर देखने लगा। उस गाँव में चोरों का उपद्रव हो रहा था। भोजन बनाने वाले मित्रों में से किसी ने गोशालक को छुप कर झांकते हुए देख लिया और चोर के सन्देह में पकड़ कर खूब पीटा। वहाँ से विहार कर के भगवान् कलंबुक ग्राम की ओर पधारे । वहाँ के स्वामी मेघ और कालहस्ती नाम के दो बन्ध थे। कालहस्ती सेना ले कर चोरों को पकड़ने जा रहा था । मार्ग में भगवान् और गोशालक की ओर देख कर पूछा-"तुम कौन हो?" भगवान् तो मौन रहते थे, परन्तु गोशालक मौन नहीं रखता हुआ भी चुप रहा । उन्हें उन पर सन्देह हुआ और सैनिकों के द्वारा भगवान् और गोशालक को बन्दी बना लिया। इसके बाद उसने अपने भाई मेघ को उन्हें दण्ड देने के लिये कहा। मेघ पहले महाराजा सिद्धार्थ की सेवा में रह चुका था। उसने भगवान् को पहिचान लिया और क्षमा-याचना करते हुए छोड़ दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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