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तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३
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अनार्यदेश में विहार और भाषण उपसर्ग सहन
भगवान् ने सोचा--" आर्यदेश में रह कर कर्मों की विशेष निर्जरा करना असंभव है। यहाँ परिचित लोग बचाव कर के बाधक बन जाते हैं । इसलिये मेरे लिये अनार्य देश में जा कर कर्मों की विशेष निर्जरा करना श्रेयस्कर है ।" इस प्रकार सोच कर भगवान् लाट देश की वज्रभूमि में पधारे । उस प्रदेश में घोर उपसर्ग सहन करने पड़े । परन्तु भगवान् घोरयुद्ध में विशाल शत्रु-सेना के सम्मुख अडिग रह कर, धैर्यपूर्वक संग्राम करते हुए योद्धा के समान अडिग रहते । भगवान को इससे संतोष ही होता। वे चाह कर उपसर्गों के सम्मुख पधारे थे । गोशालक भी साथ ही था । उसे भी बन्धन और ताड़ना की वेदनाएँबिना इच्छा के सहनी ही पड़ी। उस प्रदेश में घोर परीषह एवं उपसर्ग सहन कर और कर्मों की महान् निर्जरा करके भगवान् पुनः आर्यदेश की ओर मुड़े । क्रमानुसार चलते हुए पूर्णकलश नामक गांव के निकट उन्हें दो चोर मिले । वे लाटदेश में प्रवेश कर रहे थे । चोरों ने भगवान् का मिलना अपशकुन माना और क्रुद्ध हो कर मारने को तत्पर हुए। उस समय प्रथम स्वर्ग के स्वामी शकेन्द्र ने सोचा--" इस समय भगवान् कहा है ?" उसने ज्ञानोपयोग से चोरों को भगवान् पर झपटते हुए देखा और तत्काल उपस्थित हो उनका निवारण किया।
वहां से चल कर भगवान् भहिलपुर नगर पधारे और चार महीने का चौमासी तप कर के पांचवां चातुर्मास वहीं व्यतीत किया। चातुर्मास पूर्ण होने पर विहार कर के "भगवान् कदली समागम" ग्राम पधारे। वहाँ के लोग याचकों को अन्नदान करते थे। भोजन मिलता देख कर गोशालक ने कहा--"गुरु ! यहां भोजन कर लेना चाहिये।" भगवान् तो अधिकतर तप में ही रहते थे। अतएव गोशालक भोजन करने गया। वह खाता ही गया। दानदाताओं ने उसे भरपूर भोजन दिया । गोशालक ने वहाँ ढूंस-ठूस कर आहार किया, पानी पीना भी उसके लिये कठिन हो गया । बड़ी कठिनाई से वह वहाँ से चल कर प्रभु के निकट आया।
वहाँ से विहार कर के भगवान् जम्बूखंड ग्राम पधारे। वहाँ भी गोशालक ने सदाव्रत का भोजन किया। वहाँ से भगवान तुम्बाक ग्राम के समीप पधारे और कायोत्सर्गप्रतिमा धारण
* इसका वर्णन पु. १५१ से आ गया है।
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