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________________ चण्डकौशिक का उद्धार Restedledeesosiestostesesedeste sectodeseseobsfastestestosteleseddesedeseededesedosdechesterdstedesbdabadsheddiodesdeedeofeslesboboeshdoofestra "महात्मन् ! आप इस मार्ग से नहीं जावें । यह मार्ग सीधा तो है, परन्तु अत्यन्त भयंकर है। आगे कनखल नामक आश्रम है। वहाँ एक भयंकर दृष्टिविष सर्प रहता है। उसके विष का इतना तीव्र प्रभाव है कि उस ओर पक्षी भी उड़ कर नहीं जाते । इसलिये आप इस सीधे मार्ग को छोड़ कर इस दूसरे लम्बे मार्ग से जाइये । इसमें आपको किसी प्रकार का भय नहीं होगा।" भगवान् ने ज्ञानोपयोग से सर्पराज का भूत, वर्तमान और भविष्य जाना । यथा यह चण्डको शक सर्प पूर्वभव में एक तपस्वी साधु था। एक बार वह अपनी तपस्या के पारणे लिए भिक्षा लेने गया। उसके पाँव के नीचे अनजान में एक मेढ़की दब गई। साथ चलते हुए शिष्य ने उन्हें वह कुचली हुई मेढ़की बताते हुए कहा--"आप इसका प्रायश्चित्त लीजिये।" गुरु ने किसी अन्य द्वारा कुचली हुई दूसरी मेढ़की दिखा कर कहा“क्या इसे भी मैने ही मारी है ?'' शिष्य मौन रह गया। संध्या को प्रतिक्रमण करते समय भी आलोचना नहीं की तो शिष्य ने कहा--" आर्य ! आप मेढ़की मारने का प्रायश्चित्त नहीं लेंगे क्या?" गुरु को क्रोध आ गया । वे शिष्य को मारने दौड़े। क्रोधावेश में और अन्धकार के कारण वे एक खंभे से जोर से अथड़ाये । उनका मस्तक फट गया । इस असह्य आघात ने उनका रोष सीमातीत कर दिया । क्रोध की उग्रता में विराधक हो गये और मृत्यु पा कर ज्योतिषी देव में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यव कर कनखल के आश्रम में पांच सौ तपस्वियों के कुलपति की पत्नी के गर्भ से 'कौशिक' नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । अत्यधक क्रोधी होने के कारण वह 'चण्डकौशिक ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। पिता के देहान्त के बाद चण्डकौशिक तापसों का कुलपति हुआ। इसे अपने आश्रम और वनखंड पर अत्यन्त मूर्छा थी। अपने वनखंड से किसी को पत्र पुष्प और फल नहीं लेने देता । यदि कोई उस वन में से तुच्छ एवं सड़ा हुआ पुष्प-फलादि लेता, तो चण्डकौशिक उसे मारने दौड़ता । वह दिन-रात उसकी रखवाली करता रहता। दूसरे तो दूर रहे, वहाँ के तपस्वियों को भी वह पत्र-पुष्पादि नहीं लेने देता और उसके साथ कठोरता पूर्वक व्यवहार करता। इससे सभी तपस्वी आश्रम छोड़ कर अन्यत्र चले गये। वह अकेला रह गया। एक बार वह किसी कार्य से बाहर गया था। संयोगवश श्वेताम्बिका से कुछ राजकुमार वन-क्रीड़ा करने निकले और उसी वनखंड में आ कर, वन के पुष्पा दि तोड़ने लगे। उसी समय वह बाहर से लौट रहा था। ग्वालों ने उसे बताया कि 'तुम्हारे आश्रम को कुछ राजकुमार नष्ट कर रहे हैं।" वह आग-बबूला हो गया और अपना फरसा उठा कर उन्हें मारने दौड़ा। राजकुमार तो भाग गये किन्तु उस चण्डकौशिक का काल एक गड्ढे के रूप में वहाँ सम्मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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