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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३
वीरघोष और इन्द्रशर्मा के साथ लोगों का झुण्ड हो लिया। दोनों स्थानों से पात्र और हड्डियाँ निकाल लाये । इसके बाद सिद्धार्थ ने फिर कहा--"यह चोर ही नहीं है, व्यभिचारी भी है । इसका यह पाप मैं नहीं खोलूंगा।" लोगों के अति आग्रह से सिद्धार्थ ने कहा--"तुम इनकी पत्नी से पूछो । वह सब बता देगी।" लोग उसकी पत्नी के पास पहुँचे । पति पत्नी में कुछ समय पूर्व ही लड़ाई हुई थी। मार खाई हुई पत्नी, पति पर अत्यन्त रुष्ट हो कर रो रही थी और गालियाँ दे रही थी। उसी समय लोग पहुँचे और सहानुभूतिपूर्वक रोने का कारण पूछा। वह क्रोध और ईर्षा से भरी हुई थी। उसने कहा"यह दुष्ट इसकी बहिन के साथ कुकर्म करता है और मुझसे घृणा करता हुआ मारपीट करता है।"
अच्छन्दक की अच्छाई की सारी पोल खुल गई। लोग उससे घृणा करने लगे। उसे भिक्षा मिलना भी बन्द हो गई। अपनी हीन-दशा से खिन्न हो कर अच्छन्दक, एकान्त देख कर भगवान् के समीप पहुँचा और प्रणाम कर के बोला--
"भगवन् ! आपके द्वारा मेरी आजीविका नष्ट हो गई । मैं पद-दलित हो गया। आप तो समर्थ हैं, पूज्य हैं । आपका सम्मान तो सर्वत्र होगा। किन्तु मुझे तो अन्यत्र कोई नहीं जानता । मेरा प्रभाव इस गाँव में ही रहा है । जब तक आप यहाँ हैं, तब तक मैं पद-दलित एवं घृणित ही रहूँगा। यदि आप अन्यत्र पधार ज वेंगे, तो मेरो आजीविका पु : चल निकलेगी।"
अच्छन्दक की प्रार्थना सुन कर भगव न् को अपने अभिग्रह का स्मरण हुआ। अप्रीतिकर स्थान त्यागने के लिए भगवान् ने वहाँ से उत्तर दिशा के वाचाला ग्राम की ओर विहार कर दिया।
चण्डकौशिक का उद्धार 'वाचाल' नाम के दो गांव थे, एक रुप्यवालुका और स्वर्णवालुका नदी के दक्षिण में और दूसरा उत्तर में । भगवान् दक्षिण वाचाल से विहार कर उत्तर वाचाल की ओर पधार रहे थे, तब स्वर्णवालुका नदी के तट पर, प्रभु के कन्धे पर रहा हुमा वस्त्र कंटिली झाड़ी में अटक कर गिर गया। उस वस्त्र को ब्राह्मण ने उठा लिया।
. भगवान् श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधार रहे थे । वन-प्रदेश में चलते गोपालकों ने कहा--
x इसका उल्लेख पृ. १४९ में हो चुका है।
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