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________________ तीर्थकर चरित्र-भार्ग ३ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक आ गया। अन्धाधुन्ध भागता हुआ वह उस गर्त में गिर पड़ा और उसका वह तेज धार वाला फरसा उसी के मस्तक को फाड़ बैठा। वहीं मृत्यु पा कर वह उसी आश्रम में क्रूर दृष्टि विष सर्प हुआ। पूर्वभव का उग्र क्रोध यहाँ उसका साथी हुआ। क्रोध से अत्यन्त वित्री बनी हुई दृष्टि से वह जिसे देखता वही काल-कवलित हो कर गतप्राण हो जाता। उसके आतंक से वह सारा धन जनशून्य और पशु पक्षियों से रहित हो गया और मार्ग भी अवरुद्ध हो गया।" चण्डकौशिक का भूत और वर्तमान जान कर भगवान् ने उसके भविष्य का विचार किया। उसे प्रतिबोध के योग्य जान कर भगवान् उसी मार्ग पर चले । उस जन-संचार रहितअपथ बने हुए मार्ग पर चलते हुए उसी आश्रम के निकट पहुँचे और एक यक्षालय में कायोत्सर्ग कर के ध्यामारूढ़ हो गए। कुछ काल व्यतीत होने पर सर्पराज चण्डकौशिक इधरउधर विचरण करता हुआ उस यक्षायतन के समीप आया। अचानक उसकी दृष्टि भगवान् वीर प्रभु पर पड़ी। उसका मान-भंग हो गया। उसके एकछत्र राज्य में प्रवेश करने का साहस करने वाले मनुष्य को बह कैसे सहन कर सकता था ? क्रोधावेश में अपने फण का विस्तार कर के विष-फुत्कार छोड़ता हुआ वह भगवान् को क्रुद्ध दृष्टि से देखने लगा। उसकी दृष्टि ज्वाला उल्कापात के समान भगवान् पर पड़ी। किन्तु भगवान् पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। जब उसका यह अमोघ आक्रमण व्यर्थ हो गया, तो उसे आश्चर्य हा। यह प्रथम ही अवसर था कि उसका वार व्यर्थ हआ। विशेष शक्ति प्राप्त करने के लिए उसने बार-बार सूर्य की ओर देखा और पुन -पुनः भगवान् पर दृष्टिज्वाला छोड़ने लगा। परन्तु उसका सारा प्रयत्न व्यर्थ हुआ। अब वह अपनी रक्तवर्णी जिह्वा लपलपाता हुआ प्रभु के निकट आया और चरण में दंश दे कर पीछे हटा। प्रभु पर उसके दंश का भी कोई प्रभाव नहीं हुआ, तो वह पुनः-पुनः डसने लगा । परन्तु भगवान् के शरीर पर तो क्या दंश के स्थान पर भी विष का किञ्चित् भी प्रभाव नहीं हुआ, डंक के स्थान से गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण की रक्तधारा+ निकली। सर्पराज का +तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध इतनी उच्च एवं पवित्र भावनाओं में होता है कि जिसके कारण उनके औदारिक शरीर के स्कन्ध, अस्थियाँ और रक्तादि सभी उत्तम प्रकार के होते हैं। उनका श्वास सुगन्धित, वर्णादि अलौकिक और रक्त, दूध के समान होता है। कुछ विद्वान यहाँ माता के दूध का उदाहरण देते हैं। परन्तु वह उपयुक्त नहीं लगता। माता के तो स्तम में ही दूध होता है और उसका मूल कारण गर्भ पर स्नेह नहीं होता। वह तो पशुओं के भी और उन विधवा और क्वारी माताओं के भी होता है, जो संतान नहीं चाहती। अति संतान वाली अनिच्छक माताओं के भी होता है। तात्पर्य यह कि माता के स्तन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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