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________________ शूलपाणि यक्ष की कथा န်း ၆ အ$ ၇၀၀၆၉၆၉၀၀၆၉၆r ၉၅၀၀၉၂၅၀၈၆၉၆၉၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀ शूलपाणि यक्ष की कथा तापस-आश्रम से विहार कर के भगवान् अस्थिक ग्राम पधारे । संध्याकाल होने आया था । भगवान् ने वहाँ के निवासियों से स्थान की याचना की। लोगों ने कहा'यहाँ एक यक्ष का मन्दिर है, परन्तु यह यक्ष बड़ा क्रूर है। अपने स्थान पर किसी को रहने नहीं देता। इस यक्ष की क्रूरता, उसके पूर्वभव की एक दुर्घटना से सम्बन्धित है। इस स्थान पर पहले वर्धमान नाम का एक गाँव था। निकट ही वेगवती नामक एक नदी है, जो कीचड़ से युक्त है । एक बार धनदेव नाम का व्यापारी पाँच सौ गाड़ियों में किराना भर कर ले जा रहा था । गाड़ियों के बैलों में एक बड़ा वृषभ था। इस वृषभ को आगे जोड़ कर सभी गाड़ियों को नदी से पार उतार दिया। अतिभार को कीचड़युक्त स्थान से खिंच कर पार लगाने में वृषभ की शक्ति टूट गई। उसके मुंह से रक्त गिरने लगा। शरीर नि:सत्व हो गया वह मच्छित हो कर भमि पर गिर पड़ा। व्यापारी हताश हो गया। तह वृषभ उसका प्रिय था। उसने ग्रामवासियों को एकत्रित कर के कहा-- “यह बैल मुझे अत्यन्त प्रिय है। परन्तु अब यह चलने योग्य नहीं रहा । मैं स्वयं भी यहां इसकी सेवा के लिये रह नहीं सकता। मैं आपको इसके घास और दाना-पानी आदि सेवा के लिये पर्याप्त धन दे रहा हूँ। आप लोग इसकी सभी प्रकार से सेवा करेंगे।" धनदेव ने उन्हें खर्च के अनुमान से भी अधिक धन दिया । लोगों ने भी प्रसन्न हो कर सेवा करने का विश्वास दिलाया । उसने स्वयं भी बहुत-सा घास और दाना-पानी उस वृषभ के निकट रखवा दिया। फिर अपने प्रिय वृषभ के शरीर पर हाथ फिरा कर आँखों से आँसू टपकाता हुआ धनदेव आगे बढ़ गया। उसके जाने के बाद ग्राम्यजनों ने सब धन २ मैं सदा ध्यानस्थ ही रहूँगा (भगवान् तो दीक्षित होने के बाद विहारादि के अतिरिक्त ध्यानस्थ ही रहते थे)। ३ मौन धारण किये रहूँगा (यह नियम भी दीक्षित होते ही पाला जाता रहा था )। ४ हाथ में ही भोजन करूँगा। प्रभु ने पात्र तो रखा ही नहीं था। आचारांग १-९-१ में स्पष्ट लिखा है कि भगवान् गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते थे। परन्तु आवश्यक टीकादि में लिखा है कि--प्रथम पारणे में भगवान ने गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था। (यह बात सूत्र के विपरीत लगती हैं)। ५ गृहस्थों का विनय नहीं करूंगा (वे गृहस्थों से सम्पर्क ही नहीं रखते थे। ग्रन्थकार ने लिखा है कि जब कुलपति स्वागत करते हुए भगवान के समक्ष आए, तो भगवान् ने दोनों बाहु फैला कर विनय प्रदर्शित किया था)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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