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तीर्थकर चरित्र-भा. ३
दबा लिया और उस रोगी बैल की सर्वथा उपेक्षा कर दी। कुछ काल पश्चात् वह वृषभ भूख-प्यास से तड़पने लगा। उसके शरीर का रक्त-मांस सूख गया और वह मात्र चमड़ी
और हड्डियों का ढाँचा ही रह गया । वृषभ ने विचार किया-" इस गाँव के लोग कितने स्वार्थी और अधम हैं । ये पापी, निष्ठुर निर्दय लाग चाण्डाल जैसे हैं । मेरे स्वामी ने मेरे लिये दिया हुआ धन भी ये ठग खा गये और मुझ तड़पता हुआ छोड़ दिया"-इस प्रकार ग्राम्यजनों पर क्रोध करता हआ अत्यन्त दुःखपूर्वक अकाम-निर्जरा कर के मत्य पा कर वह शूलपाणि नामक व्यंतर हुआ । उसने विभंगज्ञान से अपना पूर्वभव और छाड़ा हुआ वृषभ का शरीर देखा । उसे उन निष्ठुर ग्राम्य जनों पर अत्यन्त कंध आया। उसने उस गाँव के लोगों में महामारी उत्पन्न कर दी। लोग रोग से अत्यन्त पीड़ित हो कर मरने लगे और उन मृतकों की हड्डियों के ढेर लगने लगे। लोग घबड़ाये और ज्योतिषी आदि से शांति का उपाय पूछने लगे । अनेक प्रकार के उपाय किये, किन्तु रोग नहीं मिटा । कई लोग गाँव छोड़ कर अन्यत्र चले गये, फिर भी उनका रोग नहीं मिटा। हताश होकर लोग पुनः इसी गाँव में आये और सब ने मिल कर एक दिन दे ों की आराधना कर के अपने अपराध की क्षमा माँगी । उनकी प्रार्थना सुन कर अन्तरिक्ष में रह कर यक्ष बोला;--
_ “अरे दुष्ट लोगों ! अब तुम क्षमा चाहते हो, परन्तु उस क्षुधातुर रोगी वृषभ की तुम्हें दया नहीं आई और उसके स्वामी का दिया हुआ धन भी खा गये । वह वृषभ मर कर में देव हुआ हूँ और तुमसे उस घोर पाप का बदला ले रहा हूँ। मैं तुम सब को समाप्त करना चाहता हूँ।"
देव-वाणी सुन कर लोग भयभीत हो गये और भूमि पर लौटते हुए बारबार क्षमा मांगने लगे। देव ने पुनः कहा--
"सुनो ! यदि तुम अपना हित चाहते हो, तो जो हड्डियों के ढेर पड़े हैं, उन्हें एकत्रित कर के उस पर मेरा भव्य देवालय बनाओ और उसमें मेरी वृषभ रूप मूर्ति स्थापित कर, उसकी पूजा करते रहो, तो मैं तुम्हें जीवित रहने दूंगा, अन्यथा नहीं।"
लोगों ने देवाज्ञा शिरोधार्य की और तदनुसार देवालय बना कर मूर्ति स्थापित की - और इन्द्र शर्मा ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया । अस्थि संचय के कारण इस गांव का 'अस्थि' नाम हुआ। यदि कोई यात्री इस देवालय में रात रहे, तो यक्ष उसका जीवन
xउस वर्धमान ग्राम को अभी सौराष्ट्र में 'वढवाण' कहते हैं और वहां शूलपाणि यक्ष का मन्दिर और प्रतिमा अब भी है-ऐसा ग्रन्थ के पादटिप्पण में लिखा है।
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