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तीर्थंकर चरित्र - भाग ३
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मित्र थे । उन्होंने अपने मित्र के पुत्र भ० महावीर को आते देख कर प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया । भगवान् उस आश्रम में एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा अंगीकार कर के ध्यानस्थ रहे। प्रातःकाल भगवान् विहार करने लगे, तो कुलपति ने कहा; - " वर्षावास व्यतीत करने के लिये आप यहीं पधारें । यह स्थान एकान्त भी है और शान्त भी ।" भगवान् विहार कर गए। जब वर्षाकाल आया, तो भगवान् उसी स्थान पर पधारे । कुलपति ने उन्हें तृण से आच्छादित एक कुटि प्रदान की । भगवान् प्रतिमा धारणा कर के उस कुटि में ध्यानारूढ़ हो गए ।
वर्षा हुई, किन्तु अब तक गौओं के चरने योग्य घास नहीं हुई थी । गायें आती और तापसों की कुटिया पर छायी हुई घास खिंच कर खाने लगती । तापस लोग उन गौओ को लाठियों से पीट कर भगाते और अपनी कुटिया की रक्षा करते । परन्तु भगवान् तो ध्यानस्थ रहते थे । उन गौओं को पीटने डराने या भगाने और झोंपड़ी की रक्षा करने की उनकी प्रवृत्ति ही नहीं थी। कई बार तो वहाँ के तापसों ने गायों को भगा कर झोंपड़ी बचाई; परन्तु जब देखा कि अतिथि श्रमण तो इस ओर देखता ही नहीं है, तो उनके मन में विपरीत भाव उत्पन्न हुए । वे कुलपति के निकट आये और बोले'आपका यह अतिथि कैसा है ? अपनी कुटिया भी गौओं से नहीं बचा सकता । हम कहाँ तक बचाते रहें ? ध्यान और तप वही करता है, हम नहीं करते क्या ?" कुलपति भगवान् के समीप आया । उसने देखा कि कुटी पर आच्छादित घास बिखर गया है । वह भगवान् से बोला ; - " कुमार ! आपने अपनी कुटिया की रक्षा क्यों नहीं की ? अपने आश्रय स्थान की रक्षा तो पक्षी भी करते हैं, फिर आप तो क्षत्रिय राजकुमार हैं । दुष्टों को दण्ड देना और सज्जनों की रक्षा करना तो आपका कर्त्तव्य है । आप अपने आश्रम की भी रक्षा नहीं करते | यह क्षात्र धर्म कैसा ?"
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कुलपति अपने स्थान पर चला गया । भगवान् ने विचार किया कि मेरे कारण इन तापसों और कुलपति को क्लेश हुआ और अप्रीति हुई । भविष्य में ऐसे अप्रीतिकारी स्थान में नहीं रहूँगा ।
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• ग्रन्थकार लिखते हैं कि इस समय वर्षाकाल के पन्द्रह दिन ही बीते थे । भगवान् ने दूसरे ही दिन वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया । यह भी लिखा है कि- कुलपति के उपालम्भ के बाद भगवान् ने पाँच अभिग्रह धारण किये । यथा-
१ अब में अप्रीतिकारी स्थान में नहीं रहूँगा ।
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