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________________ १५२ तीर्थंकर चरित्र-भाग ३ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक तोड़ लेते और असह्य पीड़ा उत्पन्न करते। उस प्रदेश में ऐसे मनुष्य बहुत कम थे, जो स्वयं उपद्रव नहीं करते और कोई करता तो रोकते तथा उन कुत्तों का निवारण करते । उसे भूमि में विचरने वाले शाक्यादि साधु भी कर कुत्तों से बचने के लिये लाठिये रखते थे, फिर भी कुत्ते उनका पीछा करते और काट भी खाते । ऐसी भयावनी स्थित में भी भगवान् अपने शरीर से निरपेक्ष रह कर विचरते रहते। उनके पास लाठी आदि बचाव का कोई साधन था ही नहीं । वे हाथ से डरा कर या मुंह से दुत्कार कर अथवा शीघ्र चल कर या कहीं छुप कर भी अपना बचाव नहीं करते थे। जिस प्रकार अनुरुल प्रदेश में स्वाभाविक चाल और शांतचित रह कर विचरते, उसी प्रकार इस प्रतिकल प्रदेश में हो रहे असह्य कष्टों में भी उसी दृढ़ता शांति एवं धीर-गम्भीरतापूर्वक विचरते रहे । ऐसे प्रदेश में उन्हें भिक्षा मिलना भी अत्यन्त कठिन था। लम्बी एवं घोर तपस्या के पारणे में कभी कुछ मिल जाता, तो वह रुक्ष, अरुचिकर एवं तुच्छ होता। परन्तु भगवान् महावीर तो संग्राम में अग्रभाग पर रह कर आगे बढ़ते रहने वाले बलवान् गजराज के समान थे । भयंकर उपसर्गों की उपेक्षा करते हुए अपनी साधना में आगे ही बढ़ते रहते। इसीलिये तो वे इस प्रदेश में पधारे थे। भगवान् को मार्ग चलते कभी दिनभर कोई ग्राम नहीं मिलता और संध्या के समय किसी गांव के निकट पहुँचते, तो वहाँ के लोग भगवान् का तिरस्कार करते हुए वहाँ से चला जाने का कहते, तो भगवान् वन में ही रह जाते । भगवान् को कोई लकड़ी से मारता, कोई मुष्टि-प्रहार करता, कोई पत्थर से, कोई हड्डी से प्रहार कर मारता और कोई भाले की नोक शरीर में घोंप कर छेद करता, जिसमें से रक्त बहने लगता । कोई-कोई तो भगवान के शरीर से मांस भी काट लेता था। कोई उन्हें उठा कर नीचे पटक देता और ऊपर से धूल डाल देता और फिर सभी मिल कर चिल्लाते । इस प्रकार के भयंकर दुःखों को भी भगवान शान्तिपूर्वक सहन करते हए साधना में आगे बढ़ते जाते । जिस प्रकार एक शूरवीर योद्धा, संग्राम में भयंकर प्रहार सहन करते हुए भी आगे ही बढ़ता जाता है, उसी प्रकार भगवान अपनी साधना में अडिग रह कर आगे बढ़ते जाते थे । भगवान् पर प्रहार होते, उससे घाव हो जाते और असह्य पीड़ा होती, फिर भी भगवान् किसी भी प्रकार का उपचार नहीं करवाते, न कभी वमन-विरेचन, अभ्यंगन, सम्बा. धन स्नान और दत्तुन ही करते । इन्द्रियों के विषयों से तो वे सर्वथा विरत ही रहते थे। भगवान् शोतकाल में धूप में रह कर शीत-निवारण करने की इच्छा नहीं करत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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