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________________ भगवान् की उग्र साधना होते, जिन्हें वे समभावपूर्वक सहन करते । मधुर ( स्त्रियादि सम्बन्धी ) तथा कठोर कर्कश शब्द, सुगन्धी-दुर्गन्धी पुद्गलों के उपसर्ग भी होते, परन्तु भगवान् तो अपनी साधना में ही मग्न रहते । १५१ यदि बोलने की आवश्यकता होती तो भगवान् बहुत कम बोलते । निर्जन स्थान में जाते या खड़े रहते देख कर लोग पूछते कि " तू कौन है ?" तो भगवान् इतना ही कहते कि" में भिक्षुक हूँ ।" कभी किसी को वे उत्तर नहीं भी देते, तो लोग चिढ़ कर उन्हें पीटने लगते, परन्तु भगवान् तो अपनी ध्यान-समाधि में लीन रह कर सभी उपसर्ग सहन करते । यदि कोई भगवान् को कहता कि " तू यहाँ से चला जा," तो वे तत्काल चले जाते । यदि वे लोग क्रोध कर के गालियाँ देते, कठोर वचन कहते, तो भगवान् शान्तिपूर्वक सहन करते रहते । जब शिशिर ऋतु शीतल वायु वेगपूर्वक बहता और लोग ठिठुरने लगते. पसलियों में शीत लहरें शूल के समान लगती, तब अन्य साधु तो वायु-रहित स्थान खोज कर उसमें रहते और वस्त्रों- कम्बलों और अन्य साधनों से अपना बचाव करते, तापस लोग आग जला कर शीत से बचते, परंतु ऐसी असह्य शीत में भी महा-संयमी भगवान् खुले स्थान में रह कर शीत का असह्य परीषद् सहन करते । यदि कभी किसी वृक्षादि के नीचे रहते हुए भी शीत का परीषह असह्य हो जाता, तो उससे बचने का उपाय नहीं कर के भगवान् उस स्थान से बाहर निकल कर विशेष रूप से शीत- परीषह को सहन करने लगते और मुहूर्त मात्र रह कर पुन: वहीं आ कर ध्यानस्थ हो जाते । इस प्रकार भगवान् ने बारंबार परीषह सहन करते हुए संयमविधि का परिपालन किया । Jain Education International भगवान् को अनेक प्रकार के भयंकर परीषह हो रहे थे, परन्तु वे एक महान् धीरकी भाँति अडिग रह कर सहन कर रहे थे । भगवान् पर आर्यभूमि में रहे हुए अनार्य लोगों द्वारा जो उपसर्ग उत्पन्न हुए, उन यातनाओं को सहन करने से जो निर्जरा हो रही थी, वह भगवान् को अपर्याप्त लगी। उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि मेरे कर्म अति निविड हैं । इनकी निर्जरा इस प्रदेश में रहते नहीं हो सकती। इसके लिए लाट- देश की वज्रभूमि और शुभ्रभूमि का क्षेत्र अनुकूल है । वहाँ के लोग अत्यन्त क्रोधी, क्षुद्र, क्रूर एवं अधम-मनोवृत्ति के हैं । उनके खेल तथा मनोरंजन के साधन भी हिंसक, निर्दय और घोर पापपूर्ण हैं । भगवान् उधर ही पधारे। लोग उन्हें देख कर क्रोध में भभक उठते, मारते-पीटते और शिकारी कुत्तों को छोड़ कर कटवाते । वे भयंकर कुत्ते भगवान् के पाँवों में दाँत गढ़ा देते, मांस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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