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________________ १५० तीर्थंकर चरित्र-भा. ३ स्त्रियों को सभी पापों का मूल जान कर त्याग कर दिया था। अतएव भगवान् मोहक प्रसंगों की उपेक्षा कर के ध्यान-मग्न रहते । भगवान् आधाकर्मादि दोषों से दूषित आहारादि को कर्मबंध का कारण जान कर ग्रहण नहीं करते, अपितु सभी दोषों से रहित शुद्ध आहार ही ग्रहण करते । भगवान् न तो पराये वस्त्र का सेवन करते और न पराये पात्र का ही सेवन करते । भगवान् ने पात्र तो ग्रहण किया ही नहीं और इन्द्र-प्रदत्त वस्त्र को भी ओढ़ने के काम में नहीं लिया। उस वस्त्र के गिरजाने के बाद वस्त्र भी ग्रहण नहीं किया। मान-अपमान की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान् गृहस्थों के रसोईघर में आहार की याचना करने के लिये जाते और सरस आहार की इच्छा नहीं रखते हुए जैसा भी शुद्ध आहार मिलता, ग्रहण कर लेते । यदि भगवान् के शरीर पर कहीं खाज चलती, तो वे खुजलाते भी नहीं थे। भगवान् मार्ग में चलते हुए न तो इधर-उधर (अगल-बगल) और पीछे देखते और न किसी के बोलाने पर बोलते । वे सीधे ईर्यापथ शोधते हुए चलते रहते । यदि शीत का प्रकोप बढ़ जाता तो भी भगवान् निर्वस्त्र रह कर सहन करते, यहाँ तक कि अपनी भुजाओं को संकोच कर बाहों में अपने शरीर को जकड़ कर सर्दी से कुछ बचोव करने की चेष्टा भी नहीं करते । भगवान् विहार करते हुए जिन स्थानों पर निवास करते, वे स्थान ये थे;-- निर्जन झोपड़ियों में, पानी पिलाने की प्या 5 में, सूने घर में, हाट (दुकान) के बरामदे में, लोहार, कुंभकार आदि की शालाओं में, बुनकरशाला में, घास की गंजियों में, बगीचे के घर में, ग्राम-नगर में, श्मशान में और वृक्ष के नीचे प्रमाद-रहित ध्यान में मग्न हो जाते। निग्रंथ-प्रव्रज्या धारण करने के बाद भगवान् ने (छद्मस्थता की अन्तिम र। त्रि के पूर्व) कभी निद्रा नहीं ली । वे सदैव जाग्रत ही रहते । यदि कभी निद्रा आने लगती, तो शीतकाल में स्थान के बाहर निकल कर, कुछ चल कर ध्यानस्थ हो जाते। भगवान् जन-शून्यादि स्थानों में रहते, तो अनेक प्रकार के मनुष्यों, सर्प-बिच्छु आद पशुओं और गिद्धादि पक्षियों से विविध प्रकार के उपसर्ग होते। शून्य घर में प्रभु ध्यानस्थ रहते, वहां जार-पुरुष स्त्रियों के साथ कुकर्म करने जाते, तब भगवान् को देख कर दुःख देते। ग्राम-रक्षक भगवान् को चोर, ठग या भेदिया मान कर मार-पीट करते, कामान्ध बी हुई दुराचारिणी स्त्रियाँ, भोग प्रार्थना करता और कई पुरुष भी कष्ट देते । भगवान् को इस लोक के मनुष्य से और परलोक के तिर्यंच-देव-सम्बन्धी भयंकर एवं असह्य उपसर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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