________________
マ
११२
वाला कोई सामान्य पुरुष नहीं है, किन्तु इस अवसर्पिणी काल के होने वाले प्रथम वासुदेव हैं।" सारथी के वचन सुन कर सिंह निश्चित हो कर मरा और नरक में गया मृत सिंह का चर्म उतरवा कर त्रिपृष्ठकुमार ने अश्वग्रीव के पास भेजते हुए दूत से कहा--"इस पशु से डरे हुए अश्वग्रीव को उसके वध का सूचक यह सिंह चर्म देना और कहना कि " आपकी स्वादिष्ट भोजन की इच्छा को तृप्त करने के लिए शालि के खेत सुरक्षित है । आप खूब जी भर कर भोजन करें ।" इस प्रकार सिंह के उपद्रव को मिटा कर दोनों राजकुमार अपने नगर में लौट आए। दोनों ने पिता को प्रणाम किया । प्रजापति दोनों पुत्रों को सा कर बढ़ा ही प्रसन्न हुआ और बोला- " मैं तो यह मानता हूँ कि इन दोनों का यह पुनर्जन्म हुआ है अवीव ने जब सिंह की खाल और राजकुमार त्रिपृष्ठ का सन्देश सुना, तो उसे वज्रपात जैसा लगा
STE 7
तीर्थङ्कर चरित्र - भाग- ३.
Jain Education International
St
त्रिपृष्ठ कुमार के लग्न
वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणि' में 'रथनेपुर चक्रवाल' नाम की अनुपम नगरी थी। विद्याधरराज "ज्वल नॅजटी' वहाँ का प्रबल पराक्रमी नरेश था । उसकी अग्रमहिषी का नाम 'वायुवेग' था । इसकी कुक्षि से सूर्य के स्वप्न से पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम 'ऑफ कीति' था । कालान्तर में अपनी प्रभा से सभी दिशाओं की उज्ज्वल करने वाली चन्द्रलेखा को स्वप्न में देखने के बाद पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम स्वयंप्रभा दिया गया। अर्ककीर्ति युवावस्था में बड़ा वीर योद्धा बन गया। "राजी ने उसे युबेराज पद पर स्थापित किया। स्वयंप्रभा भोवस्था पा कर अनुपम सुन्दरी हो गई उसका प्रत्येक अंगे सुगठिता, आकर्षक एवं मनोहर था। वह अपने समय की अनुपम सुन्दरी थी। उसके समान दूसरी सुन्दरा युवती कहीं भी दिखाई नहीं देती थी । लोग कहते थे कि इतनी सुन्दर स्त्री तो देवांगना भी नहीं है ।
एक बार "अभिनन्दन ' और ' गजनन्दन" नाम के दो-चारणमुनि' उस नगर के बाहर उतरे। स्वयंप्रभा उन्हें वन्दन करने आई और उपदेशामृत का पान किया धर्मोपदेश सुन कर स्वयंप्रभा बड़ी प्रभावित हुई । उसे दृढ सम्यक्त्व प्राप्त हुआ और धर्म के रंग में
x आकाश में विचरने वाले ।
P
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org