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________________ त्रिपृष्ठ कुमार के लग्न ११३ रंग गई । एक बार वह राजा को प्रणाम करने गई। पुत्री के विकसित अंगों को देख कर राजा को चिता हुई । उसने अपने मन्त्रियों को पुत्री के योग्य वर के विषय में पूछा । ___ सुश्रुत नामक मन्त्री ने कहा--"महाराज ! इस समय तो महाराजाधिराज अश्वग्रोव हो सर्वोपरि हैं। वे अनुपम सुन्दर, अनुपम वीर और विद्याधरों के इन्द्र समान हैं । उनसे बढ़ कर कोई योग्य वर नहीं हो सकता।" “नहीं महाराज ! अश्वग्रीव तो अब गत-यौवन हो गया है । ऐसा प्रौढ़ व्यक्ति राजकुमारी के योग्य नहीं हो सकता। उत्तर-श्रेणि के विद्याधरों में ऐसे अनेक युवक नरेश या राजकुमार मिल सकते हैं, जो भुजबल, पराक्रम एवं सभी प्रकार की योग्यता से परिपूर्ण हैं । उन्हीं में से किसी को चुनना ठीक होगा"--बहुश्रुत मन्त्री ने कहा। “महाराज ! इन महानुभावों का कहना भी ठीक है, किन्तु मेरा तो निवेदन है कि उत्तर-श्रेणि की प्रभंकरा नगरी के पराक्रमी महाराजा मेघवाहन के सुपुत्र 'विद्युत्प्रभ' सभी दृष्टियों से योग्य एवं समर्थ है। उसकी बहिन 'ज्योतिर्माला' भी देवकन्या के समान सुन्दर है । मेरी दृष्टि में विद्युत्प्रभ और राजकुमारी स्वयंप्रभा तथा युवराज अर्ककीति और ज्योतिमला की जोड़ी अच्छा रहेगी। आप इस पर विचार करें"--सुमति नामक मन्त्री ने कहा। "स्वामिन ! बहत सोच समझ कर काम करना है"--मन्त्री श्रत सागर कहने लगा--"लक्ष्मी के समान परमोत्तम स्त्री-रत्न की इच्छा कौन नहीं करता ? यदि राजकुमारी किसी एक को दी गई, तो दूसरे क्रुद्ध हो कर कहीं उपद्रव खड़ा नहीं कर दें। इस लिए स्वयंवर करना सब से ठीक होगा। इसमें राजकुमारी की इच्छा पर ही वर चुनने की बात रहेगी और आप पर कोई क्रुद्ध नहीं हो सकेगा।" इस प्रकार राजा ने मन्त्रियों का मत जान कर सभा विसर्जित की और संभिन्नश्रोत नाम के भविष्यवेत्ता को बुला कर पूछा । भविष्यवेत्ता ने सोच-विचार कर कहा-- "महाराज ! तीर्थंकर भगवंतों के वचनानुसार यह समय प्रथम वासुदेव के अस्तित्व को बता रहा है । मेरे विचार से अश्वग्रीव की चढ़ती के दिन बीत चुके हैं । उसके जीवन को समाप्त कर, वासुदेव पद पाने वाला परम वीर पुरुष उत्पन्न हो चुका है । मैं समझता हूँ कि प्रजापति के कनिष्ठपुत्र त्रिपृष्ठ कुमार जिन्होंने महान् क्रुद्ध एवं बलिष्ठ केसरीसिंह को कपड़ के समान चीर कर फाड़ दिया। वही राजकुमारी के लिए सर्वथा योग्य है । उनके समान और कोई नहीं है।" राजा ने भविष्यवेत्ता का कथन सहर्ष स्वीवार किया और एक विश्वस्त दूत को प्रजापति के पास सन्देश ले कर भेजा। राजदूत ने प्रजापति से सम्बन्ध की बात कही और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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