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सिंह-घात ...............................................................
" रक्षा के लिए आये हुए राजाओं ने अपने हाथी घोड़े और सै नकों का भोग दे कर इस सिंह को घमण्डी बना दिया है।"
त्रिपृष्ठकुमार ने सिंह के निकट जा कर ललकारा । सिंह ने भी समझा कि यह कोई वीर है, निर्भीक है और साहस के साथ लड़ने आया है । वह उठा और रौद्र रूप धारण कर भयंकर गर्जना करने लगा। फिर सावधान हो कर सामने आया। उसके दनों कान खड़े हो गए। उसकी आँखें दो दीपक के समान थी । दाढ़ें और दांत सुदृढ़ और तीक्ष्ण थे तथा यमराज के शस्त्रागार के समान लगते थे। उसकी जिह्वा तक्षक नाग के समान बाहर निकली हुई थी । प्राणियों के प्राणों को खिंचने वाले चिपिये के समान उसके नख थे और क्षुधातुर सर्पवत् उसकी पूंछ हिल रही थी। उसने आगे आ कर क्रोध से पृथ्वी पर पूंछ पछाड़ी, जिसे सुनते ही आस-पास रहे हुए प्राणी भयभीत हो कर भाग गए और पक्षो चिचियाटी करते हुए उड़ गये । वनराज को आक्रमण करने के लिए तत्पर देख कर अचलकुमार रथ से उतरने लगे, तब त्रिपृष्ठकुमार ने उन्हें रोकते हुए कहा-“हे आर्य ! यह अवसर मुझे लेने दीजिए। आप यहीं ठहरें और देखें । फिर वे रथ से नीचे उतरे । उन्होंने सोचा सिंह के पास तो कोई शस्त्र नहीं है, इस निःशस्त्र के साथ, शस्त्र से युद्ध करना उचित नहीं।' यह सोच कर उन्होंने भी अपने शस्त्र रख दिए और सिंह को ललकारते हुए बोले-"हे वनराज ! यहाँ आ। मैं तेरी युद्ध की प्यास बुझाता हूँ।" इस गम्भीर घोष को सुनते ही सिंह ने भी उत्तर में गर्जना की और रोषपूर्वक उछला । वह पहले तो आकाश में ऊँचा गया और फिर राजकुमार पर मुंह फाड़ कर उतरा। त्रिपृष्ठकुमार सावधान ही थे। वे उसका उछलना और अपने पर उतरना देख रहे थे। अपने पर आते देख कर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और ऊपर आते हुए सिंह के ऊपर-नीचे के दोनों ओष्ठ दृढ़तापूर्वक पकड़ लिये और एक झटके में ही कपड़े की तरह चीर कर दो टुकड़े कर के फेंक दिया। सिंह का मरना जान कर लोगों ने हर्षनाद और कुमार का जय जयकार किया। विद्याधरों और व्यन्तर देवों ने पुष्प-वृष्टि की। उधर सिंह के दोनों टुकड़े तड़प रहे थे, अभी प्राण निकले नहीं थे । वह शोकपूर्वक सोच रहा था कि--
“शस्त्र एवं कवचधारी और सैकड़ों सुभटों से घिरे हुए अनेक राजा भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सके । वे मुझ-से भयभीत रहते थे और इस छोकरे ने मुझे चीर डाला । यही मेरे लिए महान् खेद की बात है ।" इस मानसिक दुःख से वह तड़प रहा था । उसका यह खेद समझ कर रथ के सारथी ने कहा--
"वनराज ! तू चिंता मत कर । तू किसी कायर की तरह नहीं मरा । तुझे मारने
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