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....... अश्वग्रीव का होने वाला शत्रु .................१०९.
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नहीं की जाती । अतएव आप विश्वास रखें । मैं महाराज से नहीं कहूँगा । जिस प्रकार हाथी के मुंह में दिया हुआ घास पुन: निकाला नहीं जा सकता, उसी प्रकार महाराज के सामने कह कर उन्हें भड़काया तो जा सकता है, किन्तु पुनः प्रसन्न कर पाना असंभव होता है । मैं इस स्थिति को जानता हूँ। मैं तो आपका मित्र हूँ । इसलिए मेरी ओर से आप ऐसी शंका नहीं लावें ।"
इस प्रकार आश्वासन दे कर चण्डवेग चला गया। वह कई दिनों के बाद राजधानी पे पहुँचा। उसके पहुँचने के पूर्व ही उसके पराभव की कहानी महाराजा अश्वग्रीव तक पहुँच चुकी थी । त्रिपृष्ठ कुमार के प्रताप से भयभीत हो कर भागे हुए चण्डवेग के कुछ सेवकों ने इस घटना का विवरण सुना दिया था। चण्डवेग ने आ कर राजा को प्रणाम कर के प्रजापति से प्राप्त भेट उपस्थित की। राजा के चेहरे का भाव देख कर वह समझ गया कि राजा को सब कुछ मालम हो गया है। उसने निवेदन किया--
"महाराजाधिराज की जय हो । प्रजापति ने भेंट समर्पित की है । वह पूर्णरूपेण आज्ञाकारी है । श्रीमंत के प्रति उसके मन में पूर्ण भक्ति है । उसके पुत्र कुछ उद्दण्ड और उच्छृखल हैं, किन्तु वह तो शासन के प्रति भक्ति रखता है । अपने पुत्र की अभद्रता से उसको बड़ा खेद हुआ । वह दुःखपूर्वक क्षमा याचना करता है।" ... अश्वग्रीव दूसरे ही विचारों में लीन था। वह सोच रहा था--'भविष्यवेत्ता की एक बात तो सत्य निकली। यदि सिंह-वध की बात भी सत्य सिद्ध हो जाय, तो अवश्य ही वह भय का स्थान है--यह मानना ही होगा। उसने एक दूसरा दूत प्रजापति के पास भेज कर कहलाया कि--"तुम सिंह के उपद्रव से उस प्रदेश को निर्भय करो।" दूत के आते ही प्रजापति ने कुमारों को बुला कर कहा- ...... . .
“यह तुम्हारी उदंडता का फल है। यदि इस आज्ञा का पालन नहीं हुआ, तो अश्वग्रीव, यमराज बन कर नष्ट कर देगा और आज्ञा का पालन करने गये, तो वह सिंह स्वयं यमराज बन सकता है। इस प्रकार दोनों प्रकार से हम संकट ग्रस्त हो गए हैं । अभी तो मैं सिंह के सम्मुख जाला हूँ। आगे जैसा होना होगा, वैसा होगा।"
कुमारों ने कहा--"पिताश्री आप निश्चित रहें। अश्वग्रीव का बल भी हमारे ध्यान में है और सिह' तो विचारा पशु है, उसका तों भय ही क्या है ? अतएव आप किसी प्रकार की चिंता नहीं करें और हमें आज्ञा दें, तो हम उस सिंह के उपद्रव को शांत कर के : शीघ्र लौट आवे।"
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