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________________ १०८ तीर्थंकर चरित्र भाग ३ .. ."बस करो बन्धु ! इस नर-कीट पर प्रहार मत करो। यह तो बिचारा दूत है । दूत अवध्य होता है । इसकी दुष्टता को सहन कर के इसे जाने दो। यह तुम्हारा आघात सहन नहीं कर सकेगा।" त्रिपृष्ठ ने अपना हाथ रोक लिया। किन्तु अपने साथ आये हुए सुलटों को आज्ञा दी कि-- "मैं इस दुष्ट को जीवन-दान देता हूँ। किन्तु इसके पास की सभी वस्तुएं छिन लो।" राजकुमार की आज्ञा पाते ही सुभट: उस पर टूट पड़े । उसके शस्त्र, आभूषण और प्राप्त भेट आदि वस्तुएँ छीन ली और मार-पीट कर चल दिये। जब यह समाचार नरेश के कानों तक पहुँचे, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने सोचा--' राजदूत के पराभव का.. परिणाम. भयंकर होगा। अब, अश्वग्रीव की कोपाग्नि भडकेगी और उसमें मैं. मेरा वंश और यह राज भस्म हो जायगा। इसलिये जब तक चण्डवेग मार्ग में है और अश्वग्रीव के पास नहीं पहुँ, तब तक उसको मना कर प्रसन्न कर लेना उचित है । इससे यह अग्नि जहाँ उत्पन्न हुई, वहीं बुझ जाएगी और सारा भय दूर हो जायगा ।' यह सोच कर प्रजापति ने अपने मन्त्रियों को भेज कर चण्डवेग का बड़ा अनुनय-विनय कराया और उसे पुनः राज-प्रासाद में बुलाया। उसके हाथ जोड़ कर बड़े ही 'विनय के साथ पहले से चार गुना अधिक द्रव्य भेंट में दिया और नम्रता पूर्वक कहा;-- ___ “आप जानते ही हैं कि युवावस्था दुःसाहसपूर्ण होती है । एक गरीब मनुष्य का युवक पुत्र भी युवावस्था में उन्मत्त हो जाता है, तो महाराजाधिराज अश्वग्रीव की कृपा से, वृद्धि पाई सम्पत्ति में पले मेरे में कुमार, वृषभ' के समान उच्छृखले हो जाय, तो आश्चर्य की बात नहीं है । इसलिए हे कृपालु मित्र ! इन कुमारों के अपराध की स्वप्न के समान भूल ही जावें । आप तो मेरे सगै भाई के समान हैं। अपना प्रेम सम्बन्ध अक्षुण्ण रखें और महाराज अश्वग्रीव के सामने इस विषय में एक शब्द भी नहीं कहें ।" .. राजा के मीठे व्यवहार से चण्डवेर्ग का क्रोध शांत हो गया । वह बोला-- "राजन् ! अपके साथ मेरा चिरकाल का स्नेह सम्बन्ध हैं। मैं इन छोकरों की मूर्खता की उपेक्षा करता हूँ और इन कुमारों को भी मैं अपना ही मानता हूँ । आफ्का हमारा सम्बन्ध वैसा ही अटूट रहेगा। आप विश्वास रखें। लड़कों के अपराध का उपालंभ उनके पालक को ही दिया जाता है और यही दण्ड है । इसके अतिरिक्त 'कहीं अन्यत्र पुकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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