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________________ अश्वग्रीव का होने वाला शत्रु इसका स्वागत करने के लिए पिताजी भी खड़े हो गए ? इसे द्वारपाल ने क्यों नहीं रोका ?" यह महाराजाधिराज अश्वग्रीव का दूत है । दक्षिण भारत के जितने भी राजा हैं, वे सब अश्वग्रीव के अधीन हैं । वह सब का अधिनायक है । इसलिए महाराज ने उसे आदर दिया और द्वारपाल ने भी नहीं रोका। स्वामी के कुत्ते को भी दुत्कारा नहीं जाता। उसका भी आदर होता है, तो यह तो महाराजाधिराज अश्वग्रीव का प्रिय राजदूत है । इसको प्रसन्न रखने से महाराजाधिराज भी प्रसन्न रहते हैं । यदि राजदूत को अप्रसन्न कर दिया जाय, तो राज एवं राजा पर भयंकर संकट आ सकता है ।" राजकुमार त्रिपृष्ठ को यह बात नहीं रुचि । उसने कहा; -- " संसार में ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिससे अमुक व्यक्ति स्वामी ही रहे और अमुक सेवक ही । यह सब अपनी-अपनी शक्ति के अधीन है । मैं अभी कुछ नहीं कहता, किन्तु समय आने पर उस अश्वग्रीव को छिन्नग्रोव (गर्दन छेद ) कर भूमि पर सुला दूँगा ।" इसके बाद कुमार ने अपने सेवक से कहा ; " जब यह राजदूत यहाँ से जाने लगे, तब मुझे कहना । मैं इससे बात करूंगा ।" राजदूत चण्डवेग ने प्रजापति को राज सम्बन्धी कुछ आज्ञाएँ इस प्रकार दी, जिस प्रकार एक सेवक को दी जाती है । प्रजापति ने उसकी सभी आज्ञाएँ शिरोधार्य की और योग्य भेंट दे कर सम्मानपूर्वक बिदा किया । राजदूत भी संतुष्ट हो कर अपने साथियों के साथ पोतनपुर से रवाना हो गया । जब राजकुमार त्रिपृष्ठ को राजदूत के जाने का समाचार मिला, तो वे अपने बड़े भाई के साथ तत्काल चल दिये और रास्ते में ही उसे रोक कर कहने लगे; -- Jain Education International ――― "अरे, ओ धीठ पशु ! तू स्वयं दूत होते हुए भी महाराजाधिराज के समान घमण्ड करता है । तुझमें इतनी भी सभ्यता नहीं कि सूचना करवाने के बाद सभा में प्रवेश करे । एक राजा भी अपनी प्रजा में किसी गृहस्थ के यहाँ जाता है, तो पहले सूचना करवाता है और उसके बाद वहाँ जाता है। यह एक नीति है । किन्तु तू न जाने किस घमंड में चूर हो रहा है कि बिना सूचना किये ही उन्मत्त की भाँति सभा में आ गया। मेरे पिताश्री ने तेरी इस तुच्छता को सहन कर के तेरा सत्कार किया. यह उनकी सरलता है । किन्तु में तेरी दुष्टता सहन नहीं कर सकता। बता तू किस शक्ति के घमण्ड पर ऐसा उद्धत बना है ? बोल ! नहीं, तो मैं अभी तुझे तेरी दुष्टता का फल चखाता हूँ।" रोषपूर्वक इतना कह कर राजकुमार ने मुक्का ताना, किन्तु पास ही खड़े हुए बड़े भाई राजकुमार अचल ने रोकते हुए कहा; —— १०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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