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तीर्थङ्कर चरित्र - भाग ३
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भावी तीर्थंकर
कालांतर में भगवान् फिर विनीता नगरी के बाहर पधारे। महाराजाधिराज भरत भगवान् को वन्दन करने आया । भरत महाराज भविष्य में होने वाले तीर्थंकर आदि के विषय में पूछा । प्रभु ने भविष्य में होने वाले तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव के नाम बताये । महाराजा ने पुनः पूछा-
" भगवन् ! इस सभा में कोई ऐसा व्यक्ति है जो भविष्य में आपके समान अरिहंत
होगा ?"
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"हां, तुम्हारा पुत्र मरीचि इस अवसर्पिणी काल का 'महावीर' नाम का अंतिम तीर्थंकर होगा और पोतनपुर में 'त्रिपृष्ट' नामक प्रथम वासुदेव तथा महाविदेह की मोका नगरी में 'प्रियमित्र' नामक चक्रवर्ती होगा " -- भगवान् ने कहा ।
प्रभु का निर्णय सुन कर भरत महाराज मरीचि के पास आये और कहने लगे" तुमने पवित्र निर्ग्रथ प्रव्रज्या का त्याग कर दिया, इसलिये तुम वन्दन करने योग्य नहीं रहे, परन्तु तुम भविष्य में पोतनपुर में प्रथम त्रिपृष्ट वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती और इस अवसर्पिणी काल के 'महावीर' नाम के अन्तिम तीर्थंकर होओगे । भगवान् ने तुम्हारा यह शुभ भविष्य बतलाया, जिसका शुभ संवाद देने में तुम्हारे पास आया हूँ ।"
जाति मद से नीच - गोत्र का बन्ध
भरतेश्वर की बात सुन कर मरीचि बहुत प्रसन्न हुआ । वह ताली पीट-पीट कर नाचने लगा और उच्च स्वर से कहने लगा-
"अहो ! में कितना भाग्यशाली हूँ। मेरे पिता आदि चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह आदि तीर्थंकर हैं । मैं आदि वासुदेव बनूँगा, चक्रवर्ती पद का भोग भी मैं प्राप्त करूँगा और अन्त अपने पितामह जैसा ही अन्तिम तीर्थंकर बन कर मुक्ति प्राप्त करूँगा । अहां, मैं तो वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर जैसे तीनों उत्तम पदों को प्राप्त करूँगा । कितना उत्तम है मेरा कुल । मेरे कुल जैसी उच्चता संसार में किसी की भी नहीं है । हैं, अब मैं किस की परवाह करूँ " - इस प्रकार बारंबार बोलता और भुजा-स्फोट करता हुआ, जातिमद में निमग्न मरीचि ने 'नीच - गोत्र' कर्म का बन्ध कर लिया ।
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