________________
भरत-पुत्र मरीचि .कककककक कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका
" निग्रंथ-साधुता मेरुपर्वत जितना भार उठाने के समान है । मुझ में इतना सामर्थ्य नहीं कि मैं इस भार को शांतिपूर्वक वहन कर सकूँ। किंतु अब इसका त्याग भी कैसे हो सकता है ? यदि मैं साधुता छोड़ कर पुनः गृहस्थ बनता हूँ, तो लोग निन्दा करेंगे और मुझे लज्जित होना पड़ेगा। फिर क्या करूँ ?" वह विचार करने लगा । उसे रास्ता मिल गया। "जिन धर्म में भी श्रावकों के देशव्रत तो है ही । मैं देश-विरत बन जाऊँ और वेश से साधु भी रहूँ । जैसे कि--
(१) ये श्रमण-महात्मा त्रिदण्ड (मन, वचन और काया से पाप करके आत्मा को दंड योग्य बनाना) से विरत हैं । किन्तु मैं त्रिदण्ड से युक्त रहूँगा। इसलिये मैं त्रिदण्ड का चिन्ह रखूगा।
(२) सभी श्रमण केशों का लोच कर के मुण्डित बनते हैं। किन्तु मैं कैंची आदि से केश कट बाऊँगा और शिखाधारी रहूँगा।
(३) श्रमण-निग्रंथ पांच महाव्रतधारी होते हैं । मैं अणुव्रती बनूंगा। (४) मुनिवृंद अपरिग्रही निष्किचन हैं, किन्तु मैं मुद्रिकादि परिग्रह रखूगा । (५) शीत-उष्ण और वर्षा से बचने के लिये मैं छत्र भी रखूगा । (६) मैं पाँवों की रक्षा के लिये उपानह भी पहनूंगा। (७) दुर्गंध से बचने के लिये ललाट पर चन्दन लगाऊँगा।
(८) श्रमणवृंद कषायों के त्यागी हैं, शुद्ध स्वच्छ साधना वाले है, इसलिए वे शुक्ल-श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, किन्तु मैं वैसा नहीं रहा । इसलिये मैं कषाय (रंगा हुआ) वस्त्र धारण करूँगा।
(९) मुनिवरों ने असंख्य-अनन्त जीवों वाले सचित्त जल का त्याग कर दिया है, परन्तु मैं परिमित जल से स्नान भी करूँगा और पान भी करूंगा।
इस प्रकार निश्चय कर के मरीचि ने मुनिलिंग का त्याग कर के त्रिदण्डी सन्यास धारण किया। उसके वेश की भिन्नता देख कर लोग उससे पूछते कि-"आपने यह परिवर्थन क्यों किया?"
वह कहता-"श्रमण-धर्म मेरु पर्वत का महाभार उठाने के समान है। मुझ में इतना सामर्थ्य नहीं कि मैं इसका निर्वाह कर सकूँ । इसलिये मैने परिवर्तन किया है।"
मरीचि धर्मोपदेश देता । उसके उपदेश से प्रतिबोध पा कर कोई व्यक्ति श्रमणदीक्षा धारण करना चाहता, तो वह भ० ऋषभदेवजी के पास ले जा कर दीक्षा दिलवाता और विहार में भगवान के साथ ही चलता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org