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दशरथजी का कैकेयी के साथ लग्न और वरदान
दशरथजी वेश-परिवर्तन कर विदेशों में भ्रमण कर रहे थे । मिथिलेश जनक जी भी उनके साथ हो लिए। दोनों नरेश मित्रवत् साथ रह कर एक स्थान से दूसरे स्थान, अपने को गुप्त रखते हुए भटकने लगे । वे फिरते हुए उत्तरापथ में आये । 'कौतुकमंगल' नगर के शुभमति राजा की पृथ्वीश्री रानी से उत्पन्न राजकुमारी ककेयी के स्वयंवर का आयोजन हो रहा था। ये समाचार सुन कर दोनों राजा स्वयंवर मण्डप में गये । वहां अन्य कई राजा आये थे । ये दोनों राजा भी यथास्थान बैठ गए । कैकेयी सर्वालंकार से विभूषित एवं लक्ष्मी के समान सुसज्जित हो कर सभा में आई । उसके हाथ में एक भव्य पुष्पमाला झूल रही थी। धायमाता उसे विवाहेच्छुक नरेश का परिचय एवं विशेषता बताती और वह दासी के हाथ में रहे हुए दर्पण में उसका रूप देख कर आगे बढ़ती रही चलते हुए वह दशरथ नरेश के पास आई। दशरजी को देखते ही वह रोमांचित एवं मोहित हो गई और उसने अपने हाथ की माला उनके गले में पहिना कर वरण कर लिया। दशरथजी को वरण करते देख कर अन्य राजा कुपित हो गए। हरिवाहन आदि राजा कहने लगे--'इस कंगाल एवं असहाय जसे एकाकी पर मोहित हो कर कैकेयी ने भयंकर भूल की। हम इस सुन्दरी को छिन लेंगे, तो यह हमारा क्या कर लेगा? हम शस्त्र-सज्ज हो कर आवें और इससे इस अनमोल स्त्री-रत्न को छिन लें।' इस प्रकार सोच कर सभी राजा अपनी-अपनी छावनी में गये । एकमात्र शुभमति नरेश उनके साथी नहीं हुए। उन्होंने सोचा--'स्वयंवर में कन्या को अधिकार है कि वह चाहे जिसे वरण करे। उसे रोकने या उसके चुनाव में हस्तक्षेप करने का किसी को भी अधिकार नहीं है ।' उन्होंने दशरथजी से कहा--"आप घबड़ावें नहीं, मैं अपनी सेना सहित आपका साथ दूंगा।" दशरथजी ते शुभमति नरेश का आभार मानते हुए कहा--
"महाभाग ! आपकी अकारण कृपा एवं न्यायप्रियता का में पूर्ण आभारी हूँ। यदि मुझे एक रथ, शस्त्र और कुशल सारथि मिल जाय, तो मैं अकेला ही इन से लोहा ले कर सभी को अपनी करणी का फल चखा सकता हूँ।"
दशरथजी की बात सुन कर कैकेयी बोली ;--" में रथ को अच्छी तरह नला सकती हूँ।" दशरथ जी शस्त्र-सज्ज हो कर रथ पर चढ़े। कैकेयी सारथि बनी । अन्य राजा भी उपस्थित हुए। लड़ाई प्रारंभ हुई । दशरथजी जम कर बाणवर्षा करने लगे और कैकेयी कुशलतापूर्वक, इस प्रकार विभिन्न स्थानों पर रथ आगे बढ़ाती, मोड़ती, बगल दे कर बचाती और शत्रु सेनाध्यक्षों की ओर अभिमुख करती कि जिससे शत्रु, दशरथ जी के
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