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जनक और दशरथ का प्रच्छन्न वास
उसका अच्छा स्वागत किया और राजा की मूच्छितावस्था बतलाई । विभीषण ने मन्त्रियों से कहा-" हमें आपसे या दशरथजी से कोई द्वेष या वैर नहीं है । दशरथजी हमारे मित्र और साम्राज्य के निष्ठा सम्पन्न स्तंभ है । हम उनका अनिष्ट नहीं चाहते, किन्तु भविष्यवेत्ता ने दशरथजी के पुत्र द्वारा साम्राज्याधिपति महागजाधिराज दशाननजी का अनिष्ट होना बतलाया । सम्भव है भविष्य में कोई वैसा पुत्र जन्मे और विरुद्ध हो कर शत्रु बन बैठे, तो इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए मैं यहां आया हूँ। यह अच्छा हुआ कि दशरथजी मूच्छित हैं । ऐसी स्थिति में मारने से कुछ नहीं बिगड़ेगा और आप लोग स्वाभाविक मृत्यु की बात प्रचारित कर सकेंगे।" विभीषण शयन-कक्ष में आया । वैद्य खरल में दवाई घोंट रहे थे। रानियाँ और परिवार की स्त्रियाँ उदास हो कर बैठी थी। मख्य-मन्त्री का संकेत पा कर अन्तःपूर परिवार वहां से हट गया। विभीषण शय्या के निकट आया। उसने देखा--दशरथ के सारे शरीर पर रेशमी चादर ओढ़ाई हुई है, केवल मुंह ही खुला है । विभीषण ने दूर से ही देखा--दशरथ सोया हुआ है । उसके मन में विचार हुआ-'मूच्छित एवं निर्दोष व्यक्ति को क्यों मारूँ ?" फिर दूसरा विचार हुआ-'भावी अनिष्ट को नष्ट करने के लिए तो आया ही हूँ।' उसने अन्य विचारों को छोड़ कर तलवार खींच ली और निकट आ कर गरदन पर एक हाथ मार ही दिया । गरदन कट कर अलग जा पड़ी। तलवार से गरदन काट कर विभीषण उलटे पांव लौट गया । उधर रानियां चित्कार कर उठीं। विभीषण ने उन्हें समझाते हुए कहा--"तुम घबड़ाओ मत । दशरथजी का बचना अशक्य था । वे स्वर्ग सिधार गए । तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा। अपने धर्म का पालन करती हई तुम शांति से रहना।"
विभीषण उस दुःखद वातावरण से निकला और सैनिक-शिविर में आ कर प्रस्थान कर दिया। अब उसने मिथिला जाना भी उचित नहीं समझा। उसने सोचा-'जिसके पुत्र से भय था, वही मार डाला गया, तो अब पुत्री के पिता को मारने की आवश्यकता ही क्या है ? पुत्री तो शत्रु को मोहित करने वाली मात्र है, मारने वाली नहीं । जब मारने वाले का बीज ही नष्ट हो गया, तो पुत्री के पिता को मारने की आवश्यकता ही क्या रही।' इस प्रकार विचार कर विभीषण राजधानी लौट आया और रावण से दशरथ को सरलतापूर्वक मारने की घटना सुना कर निश्चित हो गया । रावण को भी संतोष हो गया।
अयोध्या के मन्त्रियों ने दशरथ नरेश की मरणोत्तर क्रिया सम्पन्न कर दी। थोड़े दिनों की शोक-संतप्तता के बाद अयोध्या का वातावरण शान्त हो गया और सभी काम यथापूर्व चलने लग।
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