SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनक और दशरथ का प्रच्छन्न वास बढ़ने लगा। वह उस प्रदेश के भनेक राजाओं में प्रतिभा-सम्पन्न था और अपने प्रभाव से मोभायमान हो रहा था । दशरथ नरेश बाल्यावस्था में राजा हुए ।। इससे लोगों में परचक्र का भय उत्पन्न हो गया था। किन्तु यह भय एवं आशंका, मात्र भ्रम रूप ही रही । दशरथ नरेश याचकों को मुक्त-हस्त से दान देते थे, जिससे लोग उन्हें कल्पवृक्ष की उपमा देते । दशरथ नरेश, वंश-परम्परा से मान्य श्रीजिनधर्म का रुचिपूर्वक पालन करने लगे । योग्य वय प्राप्त होने पर दशरथ नरेश का दर्भस्थल नगर के सुकोशल नरेश की, रानी अमृतप्रभा में उत्पन्न पुत्री अपराजिता (अपर नाम कौशल्या) के साथ लग्न हुआ। इसके बाद कमलसंकुल नगर के राजा सुबन्धुतिलक की रानी मित्रादेवी से उत्पन्न पुत्री सुमित्रा से और इसके बाद राजकुमारी सुप्रभा भी दशरथ नरेश की तीसरी रानी हई । दशरथ नरेश सुख भोग करते हुए काल-निर्गमन करने लगे। जनक और दशरथ का प्रच्छन्न वास एक बार रावण अपनी राज्यसभा में बैठा हुआ राज्य-व्यस्थादि पर विचार कर रहा था। उस समय एक भविष्यवेत्ता सभा में आ कर उपस्थित हुआ ! रावण को विश्वास था कि वह भविष्यवेत्ता यथार्थवादी है । उसने सभा का कार्य पूर्ण होने पर भविष्यवेत्ता से कहा "जो जन्म लेता है, वह अवश्य ही मरता है । पल्योपम और सागरोपम काल तक जीवित रहने और 'अमर' कहलाने वाले देव भी मरते हैं । इस प्रकार उत्पन्न पर्याय का नष्ट होना निश्चित ही है । मैं भी मरूँगा ही। किन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरी मत्य स्वाभाविक ढंग से होगी, या किसी शत्रु के प्रहार से ? यदि शत्रु के प्रहार से होगी, तो वह शत्रु कौन होगा?" __ भविष्यवेत्ता ने विचार कर अपना निर्णय इस प्रकाया; " राजेन्द्र ! आपका देह-विलय, स्वपरिणाम से नहीं, किंतु भविष्य में उत्पन्न होने बाली राजा जनक की पुत्री के निमित्त से, राजा दशरथ के भविष्य में उत्पन्न होने वाले पुत्र के हाथों होगा।" भविष्यवेत्ता के इस निर्णय के समय विभीषण भी उपस्थित था । अपने बड़े भाई का ऐसा भविष्य सुन कर बोला;-- “ यद्यपि इस भविष्यवेत्ता की भविष्यवाणी सदैव सत्य ही हुई है, तथापि में इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy