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________________ रानी ने पति--तपस्वी संत को निकलवाया जबतक पुत्र नहीं हो जाय, तबतक आपको गृहवास में ही रहना चाहिए। राज्य को अनाथ छोड़ने से अनर्थ होने की सम्भावना है।' मन्त्री की बात मान कर राजा रुक गया। कालान्तर में सहदेवी रानी के गर्भ से 'सुकोशल' पुत्र का जन्म हुआ। सहदेवी ने सोचा'यदि पुत्र-जन्म की बात पति को मालम हो जायगी, तो वे साधु बन जावेंगे।' यह सोच कर उसने पुत्र-जन्म की बात गुप्त रखी । पुत्र को गुप्त रख कर मृत-बालक जन्मने की बात प्रकट की। किन्तु राजा को किसी प्रकार सत्य-भेद मालूम हो गया। उसने बालक का राज्याभिषेक कर के प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। उग्र तप करते हुए और अनेक परीषहों को सहन करते हुए राजर्षि कीर्तिधर गुरु आज्ञा से एकाकी विहार करने लगे। विहार करते हुए वे अयोध्या नगरी में पारणा लेने के लिये आये और नगरी में भ्रमण करने लगे । मध्यान्ह का समय था । राजमाता सहदेवी झरोखे में बैठ कर नगर-चर्या देख रही थी। उसकी दृष्टि तपस्वी सन्त पर पड़ी। वह चौंकी। उसने अपने पति को पहिचान लिया। उसने सोचा- “पति मुझे छोड़ कर साधु हो गए । यदि पुत्र, पिता से मिलेगा, तो वह भी साधु हो जायगा ! फिर में पुत्र-विहीन हो जाऊँगा और राज्य, राजा से रहितनिर्मायक हो जायगा । इसलिए इसका यही उपाय है कि तपस्वी सन्त को इस नगर में से निकाल कर बाहर कर दिया जाय, जिससे पुत्र, पिता से मिल ही नहीं सके''--इस प्रकार विचार कर के रानी ने, अन्य वेशधारियों को प्रेरित कर के तपस्वी सन्त को नगर से बाहर निकलवा दिया । इस भवन, राज्य एवं नगर के भूतपूर्व स्वामी एवं वर्तमान महातपस्वी सन्त को नगर से बाहर निकलवाने के राजमाता के निष्ठुक प्रपञ्च को, सुकोशल नरेश की धाय-माता सहन नहीं कर सकी और जोर-जोर से रोने लगी । भवितव्यता वश उस समय नरेश उधर ही आ निकले । उन्होंने धायमाता से रोने का कारण पूछा और माता का प्रपञ्च जान कर खेदित हुए। वे उसी समय नगर के बाहर आये और महात्मा को वन्दन कर के क्षमा याचना की तथा संसार से विरक्त हो कर प्रवजित होने की तैयारी करने लगे। उस समय उसकी रानी चित्रमाला गर्भवती थी । वह मन्त्रियों के साथ आ कर कहने लगी,--"आप को निर्नायक राज्य छोड़ कर दीक्षित होना उचित नहीं है।" राजा ने कहा--" तुम्हारे गर्भ में पुत्र है, वह राज्याधिपति होगा । उसका तुम और मन्त्रीगण सहायक बनना ।" इस प्रकार सभा के समक्ष उद्घोषणा कर के सुकोशल नरेश महाव्रतधारी साधु हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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