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सिंहनी बनी पत्नी ने तपस्वी का भक्षण किया
पुत्र-वियोग से सहदेवी को गम्भीर आघात लगा और वह अशुभ ध्यान में मर कर किसी पर्वत की गुफा में बाघिन (सिंहनी) के रूप में उत्पन्न हुई।
मुनिवर कीर्तिधरजी और सुकोशलजी, चारित्र-तप की उत्तम आराधना करते हुए विचर रहे थे । वे दमितेन्द्रिय थे और शरीर के प्रति भी उदासीन रहते थे । उन्होंने एक पर्वत की गुफा में चातुर्मास-काल, स्वाध्याय, ध्यान और तप की साधना करते हुए व्यतीत किया । कार्तिक चौमासी के बाद वे पारणे के लिए बस्ती में जाने के लिए निकले । मार्ग में वह बाघिन मिली । तपस्वियों पर दृष्टि पड़ते ही व्याघ्री के हृदय में पूर्व-भव का द्वेष जाग्रत हो गया। वह क्रुद्ध हो कर तपस्वी संतों पर झपटी । तपस्वियों ने भयंकर-- देहघातक उपसर्ग उपस्थित देखा, तो वहीं स्थिर हो कर अंतिम साधना में तत्पर हो गए। व्याघ्री छलांग मार कर सुकोशल मुनि पर पड़ी और उन्हें नीचे गिरा कर अपने नाखून से उनका देह चीरने लगी और रुधिर पान करने लगी। उनका मांस नोंच-नोच कर और हड्डियें तोड़-तोड़ कर खाने लगी। उपसर्ग की तीव्रता के साथ ही मुनिवर के ध्यान में भी तीव्रता आ गई । उपसर्ग के प्रारम्भ में युवक तपस्वी ने सोचा--"यह व्याघ्री मेरे कर्ममल को नष्ट कर के आत्मा को पवित्र करने में सहायक बन रही है।" वे ध्यान में अधिक दृढ़ हो गए और धर्म-ध्यान की सीमा को पार कर, शुक्ल-ध्यान में प्रविष्ट हो गए। मोहमहाशत्रु को पराजित कर नष्ट करने की घड़ी आ पहुँची । वे क्षपक-श्रेणी चढ़ कर घातीकर्मों को नष्ट कर के सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए और अयोगी बन कर सिद्ध हो गए। उसी प्रकार कीर्तिधर मुनि भी सिद्ध हो गए।
मस्तक पर श्वेत बाल देख कर विरक्ति
सुकोशल नरेश की रानी चित्रमाला के पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम 'हिरण्यगर्भ' रखा गया, क्योंकि वह गर्भ में ही राजा हो गया था । यौवनावस्था में मृगावती नाम की एक राजकुमारी के साथ लग्न हुए । मृगावती से पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम 'नघुष' रखा । कालान्तर में हिरण्यगर्भ दर्पण देख रहा था कि उसे अपने मस्तक पर श्वेत बाल दिखाई दिया । उस बाल को मृत्यु का दूत' समझ कर वह संसार से विरक्त हो गया और युवराज नघुष को राज्यभार सौंप कर, विमलचन्द्र मुनिराज के पास प्रवजित हो गया।
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