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________________ ७८ तीर्थकर चरित्र ... "अरे मित्र ! तुम उलटी बातें क्यों करते हो ? मैं तुम्हारी हँसी से ही त्यागी बन रहा हूँ--ऐसा मत सोचो । मैं सचमुच विरक्त हूँ । इन तपस्वी महात्मा के दर्शन करने के साथ ही मुझ में वैराग्य भावना उत्पन्न हो गई । ये महात्मा अपने मानवभव को सफल कर रहे हैं। मैं भी चाहता हूँ कि इसी समय में भी सर्वत्यागी बन जाउँ । मृत्यु का क्या ठिकाना? न जाने कब आ जाय और यह मानव-भव, भोग के कीचड़ में फंसे हुए, या रोग शय्या पर तड़पते हुए, अथवा युद्ध की विभीषिका में रक्त की होली खेलते हुए समाप्त हो जाय।" “मित्र ! सोते को साँप डस जाय, तब मेरे माता-पिता का सहारा और तुम्हारी बहिन का सौभाग्य कहाँ रह सकता है ? विवशतापूर्वक पृथक् होने के बदले स्वेच्छापूर्वक त्याग करना उत्तम है, आराधना है और महान् फलदायक है । तुम्हारी दृष्टि राग-रंजितमोह-प्रेरित है और मैं मोह को विजय करना चाहता हूँ । यदि अभी कोई शत्रु, राज्य पर आक्रमण कर दे और मैं कामभोग में गृद्धि हो कर सामना नहीं करूँ, तो तुम स्वयं मुझे कायर, अयोग्य एवं लम्पट कहोगे। उस समय तुम अपनी बहिन के सौभाग्य की ओर नहीं देख कर, राज्य की रक्षा करने की प्रेरणा करोगे, तव में अपने आत्मीय शाश्वत राज्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करूँ तो तुम्हें उदास होने और बाधक बनने की क्यों सूझती है ?" "उदय मित्र ! तुम भी समझो और छोड़ो इस विषैली काम-भोग रूपी गन्दगी को । चलो मेरे साथ और आत्मानन्द की अमृतमयी सुधा का पान करो। तुम भी मृत्युंजय हो कर अमर बन जाओगे।" उदयसुन्दर भी प्रभावित हुआ। उसकी विचारधारा पलटी। वह भी त्याग-मार्ग स्वीकार करने पर तत्पर हो गया । वज्रबाहु और उदयसुन्दर ने प्रव्रज्या धारण की। उनका अनुकरण नवपरिणीता सुन्दरी मनोरमा और बारात में आये हुए अन्य पच्चीस राजकुमारों ने किया । जब ये समाचार अयोध्या पहुँचे तो बज्रबाहु के पिता विजय नरेश भी विरक्त हो गए। उन्होंने अपने छोटे पुत्र पुरन्दर को राज्याधिकार दे कर, निग्रंथ-दीक्षा ग्रहण कर ली । पुरन्दर भी कालान्तर में विरक्त हो गया और अपने पुत्र कीर्तिधर को शासन मौप कर श्रमण-धर्म स्वीकार किया। रानी ने पति-तपस्वी संत को निकलवाया कालान्तर में कीर्तिधर नरेश भी संसार से उदासीन हो कर चारित्र-धर्म को स्वीकार करने में तत्पर हुए, कितु राज्य के मन्त्री ने रोकते हुए कहा--"आपके कोई पुत्र नहीं है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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