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वज्रबाहु की लग्न के बाद प्रव्रज्या
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__ "मित्र ! मुनिराज को देख कर आपकी प्रसन्नता बहुत बढ़ गई । आप एकटक उधर ही देख रहे हैं । इतना हर्ष तो मैने आपके चेहरे पर कभी देखा ही नहीं । क्या, स्वयं तपस्वी बनने की इच्छा है।"
"हां, मित्र ! मैं चाहता हूँ कि इन महामुनि का शिष्य हो कर मानवभव सफल कर लूं।"
- "यदि आपकी इच्छा हो, तो विलम्ब किस बात का ? चलो, मैं तपस्वीराज से कह कर उसका शिष्य बनवा दूंगा आपको"-उदयसुन्दर, वज्रबाहु की बात को हँसी ही समझ रहा था । मार्ग में उसका विशेष समय वाणी-विनोद में ही जाता था। उसने हँसीहँसी में वज्रबाहु की प्रव्रज्या में सहायक बनने का वचन दे दिया।
--"अपने वचन को निभाओ उदय ! मुझे निग्रंथ-प्रव्रज्या प्राप्त करने में सहायता दो । देखो, वचन दे कर पलटना मत ।"
--"क्यों बातें बनाते हो। हिम्मत हो, तो बढ़ो आगे। ये रहे गुरु, हो जाओ झट से चेले । आपको रोकता कौन है ? हिम्मत तो होती नहीं, संसार के सुखों का भोग करने और राजाधिराज बनने की लालसा मन में मँडरा रही है और बातें कहते हैंमहामुनि बनने की । मैं भी देखू कि वीर युवराज श्री वज्रबाहुजी किस प्रकार साधु बनते हैं । मैं वन्दना करने को तत्पर हूँ।"
वज्रबाहु का उपादान तैयार था। उदयसुन्दर के वचनों ने उसे उकसाया। वह सर्वत्यागी बनने को तत्पर हो गया। यह देख कर उदयसुन्दर घबड़ाया। हँसी, सत्य में प्रकट होते देख कर उसने वज्रबाहु से कहा
"मित्र ! मैं तो वैसे ही विनोदी बातें कर रहा था । अपन हँसी-हँसी में कितनी ही बातें कहते-सुनते चले आ रहे हैं। उन सब को छोड़ कर आपने त्यागी बनने की हठ पकड़ ली। मैं अपने शब्दों के लिए क्षमा चाहता हूँ। आप इन बातों को भूल जाइए और इस रंगभरी बारात को ले कर घर चलिये । वहाँ आपके और मेरी बहिन के स्वागत की तैयारियां हो रही है । आपके माता-पिता, सौभाग्यवती पुत्र-वधू--गृहलक्ष्मी के गृहप्रवेश की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं--पलक-पांवड़े बिछाये हुए। उनकी आशा का घात मत करो मित्र ! पाछे रथ में आ रही मेरी बहिन की उठती हुई उमंगों को नष्ट मत करो। मेरे हँसी में कहे हुए बोलो पर मेरी बहिन का सौभाग्य मत लूटो। मुझे आप जितना चाहे दण्ड दे दें, किन्तु उस आशाभरी नवपरिणिता को जीवनभर वैधव्य की ठण्डी लपटों में मत झोंको--महाभाग ! दया करो वीरवर !"
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