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तीर्थंकर चरित्र
" जीवन भर हृदय में वेदना की आग भरे, विक्षिप्त के समान रहने से तो मर जाना ही उत्तम है | अंतिम समय में आपकी चरण-वन्दना हो गई। आप शांति रख कर पधारें। माताजी को भी संतोष देवें । मेरी मनःस्थिति आपकी आत्मा को प्रसन्न करने योग्य नहीं रही । आप मुझे क्षमा करें।"
इतना कह कर पवनंजय ने अग्नि प्रज्वलित कर के चिता में रखी और अंतिम बार उच्चस्वर में बोला-
"हे बनदेवता ! हे सूर्यदेव ! हे दिग्पालों ! मैं विद्याधरपति प्रहलाद नरेश एवं महारानी केतुमती का पुत्र पवनंजय हूँ । मैंने परम शीलवती सती अंजनासुन्दरी का पाणिग्रहण किया था । किन्तु मेरी दुर्बुद्धि के कारण मैने विवाह के साथ ही उसका परित्याग कर दिया और उसे दुःख देता रहा। फिर में युद्ध में चला गया । मार्ग में देवयोग से मेरी बुद्धि ने पलटा खाया और मैं गुप्तरूप से रात्रि में आ कर प्रथमबार पत्नी से मिला । उस रात्रि को हमारा दाम्पत्य सफल हुआ । लौटते समय मैं अपने आने का प्रमाण दे कर सेना में चला गया । उस रात के मिलन से अंजना गर्भवती हुई। मेरे गुप्त आगमन के कारण, अंजना के गर्भ को दुराचार का परिणाम माना गया। वह निर्वासित हुई । पीहर में भी उसे स्थान नहीं मिला । बन में भटकती हुई वह कहाँ गई ? वह जीवित है, या नहीं। मैं उसे नहीं पा सका । वह मेरे कारण ही विपत्ति के चक्कर में पड़ी । वह सर्वथा निर्दोष थी और अब भी निर्दोष ही है । में अपने अत्याचार से स्वयं दग्ध हूँ और चिता में जल कर अपने पाप तथा विरह-वेदना का अन्त कर रहा हूँ । अंजना सती है, विशुद्ध शीलवती है । उसके शील में किसी प्रकार का दोष नहीं है । तुम सब उसके निर्मल चरित्र की मेरी ओर से साक्षी देना ।”
इस प्रकार उच्चतम शब्दों में उच्चारण कर हुआ, उसके पिता मित्र आदि उसे पकड़ कर रोकने लगे ।
सुखद मिलन
पवनंजय चिता में कूदने को तत्पर
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उधर अंजना की खोज करने वालों में से एक सेवक
हनुपुर पहुँचा और राजा
को बताया कि " अंजना के वियोग में पवनंजय, बन में भटक रहा है । यदि अंजना नहीं मिली, तो वह चिता में जल कर मर जायगा ।"
उपरोक्त समाचार सुन कर अंजना का हृदय दहल गया । महाराज प्रतिसूर्य ने
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