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पवनंजय का अग्नि-प्रवेश का निश्चय
की आशंका से तड़प रही थी। वह सारा दोष अपना ही समझ कर बार-बार रोती और छाती पीट रही थी।
अंजना के पिता अपनी विवेक-हीनता, कुलाभिमान, अन्यायाचरण एवं क्रोधान्धता पर पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे--"हा, पुत्री ! मैने उस समय आवेश में आ कर तेरे साथ अन्याय किया । तेरी बात सुनी ही नहीं, अरे तुझे आँख से देखी भी नहीं । मैं दूसरों का न्याय करता हूँ, तब दोनों पक्षों को सुन-समझ कर शान्त भाव से निर्णय करता हूँ। किंतु मैं दुर्भागी, अपने वंश की प्रतिष्ठा के अभिमान में क्रोधान्ध हो गया और तेरी बात सुने बिना ही निकलवा दिया । अरे, मैंने अपने बुद्धिमान् मन्त्री के उचित परामर्श को भी ठुकरा दिया। हा, अब क्या करूँ ? अपने इस महापाप को कैसे धोऊँ ?"
पवनंजय का अग्नि-प्रवेश का निश्चय :
पवनंजय और उसका मित्र बन में भटकते रहे, किन्तु अंजना का पता कहीं भी नहीं लगा, तब पवनंजय ने हताश हो कर कहा-“मित्र ! तुम घर जाओ । मैं बिना अंजना के जीवित नहीं रह सकता । मैं विरहाग्नि में जलते रहने से, अग्नि में प्रवेश कर समस्त दुःख और संताप को ही भस्म करना चाहता हूँ।"
_ प्रहसन ने बहुत समझाया, परन्तु पवनंजय नहीं माना । तब प्रहसन ने कहा-- "मित्र ! तुम पत्नी-विरह सहन नहीं कर सकते, तो मैं भी मित्र-विरह सहन नहीं कर सकता । अतएव में भी तुम्हारे साथ ही अग्नि-प्रवेश करूँगा।"
पवनंजय ने स्वीकार नहीं किया । अन्त में प्रहसन ने, अपने लौट आने तक जीवित रहने का वचन ले कर अंजना की खोज का परिणाम जानने के लिए राजधानी में 3
___ अब तक अंजना का पता नहीं लगा था। प्रहसित द्वारा पवनंजय के अग्नि-प्रवेश की बात सुन कर प्रहलाद राजा विचलित हो गया । वह पुत्र को समझाने के लिए तत्काल रवाना हुआ । पवनंजय के पास पहुँच कर राजा ने देखा-एक ओर काष्ठ की चिता रची हुई है, पवनंजय दुर्बल शरीर, म्लान मुख, विद्रुप वर्ण, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र और चञ्चल चित्त उस चिता के चक्कर काट रहा है । राजा ने निकट पहुंचते ही--"हा. हा............ इस प्रकार शोकपूर्ण हाहाकार करते हुए पवनंजय को बाहुपास में जकड़ कर, ललाट चूमने लगा। दोनों पिता-पुत्र जोर-जोर से रुदन कर रहे थे । पिता, पुत्र को घर चलने के लिए मना रहा था, किन्तु पुत्र का एक ही उत्तर था
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