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________________ अंजनासुन्दरी निर्वासित ६७ थी। उनकी दयनीय दशा देख कर लोगों का हृदय भर आया । किंतु वे राजा के भय से कुछ भी सहायता नहीं कर सकते थे और न अंजना ही लोगों से सहायता लेना चाहतो थी। वे दोनों सखियाँ भूखी-प्यासी, श्रांत और दुःखी थी। उनके पाँवों में छाले हो गए थे । काँटे चूम कर रक्त निकल रहा था। किन्तु वे चली ही जा रही थी। नगर को छोड़ कर शीघ्र ही बन में पहुँचने के लिए वे चली जा रही थी । जीवन में पहली बार ही इनको भूमि पर नग्न पाँवों से चलना पड़ा था। वे गिरती-पड़ती डगमगाती बन में पहुंची। उनको आश्रय नहीं देने की राजाज्ञा नगर में ही नहीं, आसपास के अन्य ग्रामों और बसतियों में भी पहुंच गई थी। उनके लिए बन में भटकने के सिवाय और कोई स्थान ही नहीं बचा था । वे भटकती हुई क्रमशः महाबन में पहुँच गई । फिर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर हृदय के आवेग को विलाप के द्वारा निकालने लगी । वह रोती हुई अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त करने लगी;-- " सासुजी ! आपका कोई दोष नहीं । आपने अपने कूल की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मुझे निकाला । यह उचित ही था। हे पिता ! मैं आपको बहुत प्रिय थी, किंतु आपने अपने कुल, गौरव और सदाचार की रक्षा के लिए मुझे आश्रय नहीं दिया, फिर मेरे श्वशुर पक्ष का भय भी आपके राज्य पर उपस्थित हो सकता था। हे मातेश्वरी ! आपने अपने पति का अनुसरण कर, अपने वात्सल्य का बलिदान किया, यह भी उचित ही था । हे भ्राता ! पिता का अनुसरण करना आपका कर्तव्य था । मैं आप किसी को दोष नहीं देती।" ___ "हे नाथ ! आपके दूर होते ही संसार मेरा शत्रु हो गया । पति के बिना पत्नी का जीवित रहना विडम्बना पूर्ण ही होता है । वास्तव में मैं स्वयं हतभागिनी हूँ, जो पति से बिछुड़ी और स्वजनों द्वारा अपमानित हो कर कलंक का असह्य भार ढोती हुई भी जीवित हूँ। मेरे प्राण इस भीषण दुःख में भी क्यों नहीं निकलते ?" ___ वसंतमाला अंजना को ढाढ़स बंधाने लगी। वे दोनों उठ कर आगे चलने लगी । वे थक जाती, तो किसी वृक्ष के नीचे पड़ जाती । थोड़ी देर बाद फिर आगे बढ़ती । नदीनाला और झरनों का पानी पीती, वृक्षों के फलों से पेट की ज्वाला शांत करती और रात के समय किसी वृक्ष के नीचे पड़ कर, धूल और पत्थरों तथा सूखें पौधों के तीक्ष्ण डंठलों पर शरीर को लम्बा कर लेट जाती । भयानक बनचर पशुओं की चीख, सर्प की पुकार और सिंहगर्जनादि भीषण वातावरण में, बिना निद्रा के भयभ्रान्त स्थिति में रात बिताती थी। एक दिन चलते-चलते एक पर्वत के पास पहुँची। उनकी दृष्टि एक गुफा पर पड़ी। वे गुफा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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