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तीर्थकर चरित्र
घात करके मर जाती, तो यह कलंक-कथा वहीं समाप्त हो जाती और किसी को मालूम भी नहीं होता । अब इसे रख लेने से हम भी कलंकित होंगे। हमारा न्याय कलंकित होगा । जनता की नीति पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इसे तत्काल यहाँ से निकाल देना ठीक होगा। जिस प्रकार सड़े हुए अंग और सर्पदंश से विषाक्त बनी हुई अंगुली को लोग काट कर फेंक देते हैं, उसी प्रकार इन्हें इसी समय यहाँ से हटा देना चाहिए।"
राजकुमार की बात सुन कर मन्त्री बोला;--
--"पुत्रियों को सास-ससुर की ओर से कष्ट हो, तो वे पिता के पास ही आती है। ऐसी स्थिति में उनका हितचिंतक, पोषक एवं रक्षक पितृगृह ही होता है । पितृगृह के सिवाय संसार में दूसरा कोई आश्रय नहीं होता। यदि पुत्री के साथ अन्याय होता है, तो उसका न्याय, पिता या भाई ही कर सकते हैं । अबलाओं का आश्रय-स्थान श्वशुरगृह या पितृगृह होता है। इसलिए हमें राजदुहिता की बात सुन कर, न्यायदृष्टि से विचार करना चाहिए। यदि विचार करने पर वह कलंकिनी प्रमाणित हो, तो निकाल देनी चाहिए । यदि बिना विचार किये ही निकाल देंगे, तो संभव है उसके साथ अन्याय हो जाय और बाद में पश्चाताप करना पड़े। इसलिए मेरा तो यही निवेदन है कि जब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो जाय, उन्हें आश्रय देना ही चाहिए और गुप्तरूप से पुत्री का पालनपोषण करना चाहिए।"
-मन्त्री ! तुमने कहा वह ठीक है । सास तो प्रायः सभी जगह कठोर होतो है और क्रूर भी होती है, किंतु वधू को सच्चरित्र होना ही चाहिए। यदि पुत्री शीलवती हो, तो पिता उसकी रक्षा करने में अपनी शक्ति भी लगा देता है, किंतु चरित्रहीन पुत्री को आश्रय देने वाले पिता की प्रतिष्ठा नहीं रहती। जब सामान्य मनुष्य भी अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करता है, तो शासक को तो विशेष रूप से करनी चाहिए। मैं जानता हूँ कि अंजना और पवनंजय के प्रारम्भ से ही मनमुटाव रहा और उसी दशा में पवनंजय रणभूमि में गया। फिर अंजना के गर्भ रहना क्या अर्थ रखता है ? इसलिए तुम विना विचार किये ही उसे यहाँ से हटा दो।" । ____ "महाराज ! न्याय कहता है कि आरोपी की बात भी सुननी......
-"बस बस, मन्त्री! कोई सार नहीं-इस प्रपञ्च में । मैं आज्ञा देता हूँ कि इसी समय उन्हें नगर की सीमा से बाहर निकाल दिया जाय"--कह कर नरेश उठ गए।
द्वारपाल ने राजा की आज्ञा अंजनासुन्दरी को सुनाई। अंजना की आशंका सत्य निकली। उसे राज-भवन छोड़ कर जाना पड़ा। उन दोनों की आँखों से अश्रुधारा बह रही
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