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________________ अंजनासुन्दरी निर्वासित ६५ यहीं छोड़ दे । मैं अपना अपमानित मुंह ले कर माता-पिता के पास जाना नहीं चाहती।" --" नहीं बहिन ! ऐसा नहीं हो सकता । मैं तुम्हें अकेली नहीं छोड़ सकती। अब तो सुख-दुःख और जीवन-मरण साथ ही होगा । दुःख की घड़ी में मैं तुम्हें अकेली छोड़ कर जाऊँ--यह कैसे हो सकता है ? मैं तुम्हारे साथ रहूँगी, तो तुम्हें भी कुछ हिम्मत दिलाती रहूँगी। अकेली का दुःख दुगुना हो जाता है । तुम घबड़ाओ मत । माता-पिता अपनी बात सुनेंगे, सोचेंगे। उन्हें अपनी बात पर विश्वास होगा । वे तुम्हारे दुःख को अपना दुःख समझेंगे और अवश्य ही आश्रय देंगे । यह दुःख थोड़े ही दिनों का है । युद्ध समाप्त होते ही सारा भ्रम दूर हो जायगा और सुख का समय आ जायगा । तुम धीरज रखो । यदि माता-पिता ने आश्रय नहीं दिया, तो फिर यह स्थिति तो है ही। अभी मन को दृढ़ बना लो और जो भी स्थिति उत्पन्न हो, उसे सहन करने का साहस करो। तुम्हें अपने लिए नहीं, तो गर्भस्थ जीव के लिए भी अपनी रक्षा करनी है। इसलिए साहस रख कर स्थिति को सहन करने को तत्पर रहो ।" अंजना को वसंतमाला का परामर्श उचित लगा । उसने इन्हीं विचारों में रात बिताई। प्रातःकाल होने पर अंग संकोचती और अपने को वस्त्र में छुपाती हुई दोनों दुःखी महिलाओं ने नगर में प्रवेश किया। उनका मन दुःख, अपमान एवं लज्जा के भार से दबा हुआ था । वे धीमी गति से राजप्रासाद के पास पहुँची । द्वारपाल ने विस्मयपूर्वक दोनों को देखा । वसंतमाला ने द्वारपाल के द्वारा महाराज से अपने आगमन और स्थिति का निवेदन करवा कर, अन्तःपुर प्रवेश की आज्ञी माँगी । द्वारपाल ने नरेश के सामने उपस्थित होकर अंजना के आगमन और वर्तमान दुरवस्था का निवेदन किया, और अन्तःपुर प्रवेश की आज्ञा मांगी । अंजना की दुर्दशा एवं कलंकित अवस्था सुन कर नरेश एकदम चिन्तामग्न हो गए। पुत्री और जामाता के अनबन की बात वे जानते थे। उन्हें भी अंजना का गर्भवती होना शंकास्पद लगा । पुत्री के मोह पर, प्रतिष्ठा के विचार ने विजय पाई । वे संभले और सोचने लगे; “सुसराल से समादरयुक्त आई हुई पुत्री का में आदर कर सकता हूँ। उसे छाती से लगा कर रख सकता हूँ, किंतु कलंकित हो कर आई हुई पुत्री को अपनी सीमा में भी प्रवेश करने देना नहीं चाहता । वह कलंकित हो कर मेरे यहाँ कैसे आ गई ? क्या मरने के लिए उसे वहीं कोई उपाय नहीं सूझा ? या कोई दूसरा स्थान नहीं मिला..... राजा विचार कर ही रहा था कि उसका पुत्र प्रसन्नकीर्ति कहने लगा"पिताजी ! इस कलंकिनी को यहां आना ही नहीं धा । यदि वह वहीं आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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