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________________ तीर्थकर चरित्र हैं। वसंतमाला की बात ने केतुमती की क्रोधरूपी आग में घृत का काम किया । उसने वसंतमाला की ताड़ना करते हुए कहा-- "कुटनी ! तू ही इस पापिनी के पाप की दूतिका और संचारिका रही है । यदि तु सच्ची और सती होती, तो यह पाप चल ही नहीं सकता । तेने ही बाहर के पुरुष को लाने ले जाने का काम किया और मेरे पुत्र की आँखों में धूल डाल कर मुद्रिका चुरा लाई। चल निकल रॉड, तू भी अपना काला मुँह कर यहाँ से । तेरे जैसी कुटनियाँ अच्छे उच्च घरानों की प्रतिष्ठा पर कालिमा पोत देती है। चल हट कल मुही''--कहते हुए जोर का धक्का दिया, जिसे घबराई हुई वसंतमाला सहन नहीं कर सकी और भूमि पर गिर पड़ी। उस पर दो चार लातें जमाती हुई केतुमती वहाँ से चली गई और अपने पति प्रहलाद नरेश से कह कर अंजना को निर्वासित करने की आज्ञा प्राप्त कर ली। उसके लिए रथ आ कर खड़ा हो गया। अंजनासुन्दरी और वसंतमाला रोती बिलखती हुई रथ में बैठ गई। रथ उन दुःखी और रोती-कलपती हुई कुलांगनाओं को ले कर चल निकला । महेन्द्रनगर के वन में ही रथ रुक गया । सन्ध्या हो चुकी थी। रथी ने विनयपूर्वक अंजना को प्रणाम किया और क्षमा याचना करते हुए उतर जाने का निवेदन किया । अंजना और वसंतमाला पर दुःख का असह्य भार आ पड़ा । अन्धेरा बढ़ रहा था। उल्लू बोल रहे थे । जम्बुक-लोमड़ी आदि की डरावनी चीखें सुनाई दे रही थी और सारा दृश्य ही भयावना हो गया। राजभवन में रहने वाली कोमलांगियों के जीवन में सहसा ऐसी घोर विपत्ति असह्य हो जाती है। फिर मिथ्या कलंक ले कर माता-पिता के सामने आने से तो मृत्यु वरण करने का इच्छा उत्पन्न कर देता है । अन्धेरे में मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था । किधर जावें, किससे पूछे। वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गई और चिंता करने लगी । अंजना के मन में भयानक भविष्य मण्डरा रहा था। उसने सखी से कहा-- “बहिन ! माता-पिता के पास जाना भी व्यर्थ रहेगा। उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न उन्हें दुःखी करेगा। वे भी हमें कलंकिनी मान कर आश्रय नहीं देंगे। तब वहां जा कर उनके सामने समस्या खड़ी कर के दुःखी करने से क्या लाभ है ? तू नगर में चली जा। तुझ पर कोई कलंक नहीं है । तुझे आश्रय मिल जायगा । मुझे अपने फूटे भाग्य के भरोसे ___+ जब अंजना को पीहर पहुंचाना था, तो पिता के भवन पर जा कर ही उतारना था। नगर के बाहर उतारना और अपनी ओर से लोक-निन्दा का प्रसग उपस्थित करना अवश्य ही बुरा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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