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________________ अंजनासुन्दरी निर्वासित अंजनासुन्दरी गर्भवती हुई । उसके अवयवों में सौंदर्य की दमक बढ़ने लगी । अंगप्रत्यंग विकसित एवं सुशोभित होने लगे और गर्भ के लक्षण स्पष्ट होने लगे। यह देख कर उसकी सास रानी केतुमती को सन्देह हुआ। वह अजना की भर्त्सना करती हुई बोली:-- __ "पापिनी ! तुने यह क्या किया ? कुलटा ! तुने तेरे और मेरे दोनों घरानों को कलंकित कर दिया । मेरा पुत्र तुझ से घृणा करता रहा, तब मैं उसकी घृणा का कारण भ्रममात्र मानती रही । मैं नहीं जानती थी कि तू खुद व्यभिचारिणी है । पवनंजय के युद्ध में जाने के बाद तू गर्भवती हो गई। तेरा पाप छुपा नहीं रह सका । तेरा मुंह देखने से भी पाप लगता है।" सासु द्वारा हुए तिरस्कार एवं लगाये हुए घोर कलंक से अंजना के हृदय पर वज्रपात के समान आघात लगा। उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। उसने बिना बोले ही पवनंजय की दी हुई मुद्रिका सासु के सामने रख दी। किन्तु उससे उसका समाधान नहीं हुआ। उसने तिरस्कार पूर्वक कहा;-- "दुष्टा ! तेरा पति, तेरे नाम से ही घृणा करता था। वह तेरी छाया से भी दूर रहा । इसलिए मैं तेरी किसी भी बात को नहीं मानती । कुलटा स्त्रियें अपना पाप छिपाने के लिए अनेक छल और षड्यन्त्र करती है । तेने भी कोई जाल रच कर मुद्रिका प्राप्त कर ली और सती बनो का ढोंग कर रही है । मैं तेरी चालबाजी में नहीं आ सकती। तू यहाँ से निकल जा । मैं तुझे अब यहाँ नहीं रहने दूंगी । जा, तू इसी समय तेरे बाप के यहाँ चली जा+।" वसंतमाला ने अंजना की निर्दोषता और पवनंजय के आगमन की साक्षी देते हुए, केतुमती को शांत करने का प्रयत्न किया, किन्तु उसका उलटा प्रभाव हुआ। जब विपत्ति आती है--अशुभ कर्म का उदय होता है, तो अनुकूल उपाय भो प्रतिकूलता उत्पन्न कर देते + ग्रथकार ने केनुमतः को कर एवं राक्षसी लिखा, किन्तु केतुमतो का क्रुद्ध होना सकारण ही था। ऐसी स्थिति में कोई भी प्रतिष्ठित व्यक्ति, सहन नहीं कर सकता। हम लोग अंजना को प्रारम्भ से ही निर्दोष मान कर विचार करते हैं। किन्तु केतुमती के सामने अंजना का सतीत्व सिद्ध नहीं हुआ था। वह जानती थी कि पवनंजय ने युद्ध में जाते समय तक पत्नी के सामने नहीं देखा, फिर वह उसकी निषता का विश्वास कैसे करे ? उसे सन्देह ह ना और क्रूद्ध होना स्वाभाविक ही था और प्रमाण में दिखाने योग्य वस्तुओं को चोरी कर के प्राप्त करना भी असंभव नहीं है। अतएव केतुमती के इस कार्य को राक्षसीपन या क्रूरता मानना उचित नहीं लगता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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