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________________ तीर्थकर चरित्र "प्रिये ! बस, बस, हो चुका । बहुत हो चुका । मेरा पाप सीमा लाँघ चुका । मेरी मूर्खता और दुष्टता चरम सीमा तक पहुँच गई । मुझे क्षमा कर दे । कल्याणी ! मुझे क्षमा कर दे"--कहता हुआ पवनंजय अंजनासुन्दरी के निकट आया और उसके चरणों में झुकने लगा। उसके हृदय में पश्चात्ताप का वेग उमड़ रहा था। अंजना इस अप्रत्याशित आनन्ददायक संयोग से अवाक रह गई । वह तत्काल संभली और पलंग से नीचे उत्तर कर पति को प्रणाम करने के लिए झुकी । पवनंजय ने उसे अपने भुज-पाश में आवेष्ठित कर पलंग पर बिठा दिया। इस अभूतपूर्व आनन्द ने अंजनासुन्दरी के शरीर में शक्ति का संचार कर दिया । मुखचन्द्र पर आभा व्याप्त हो गई । पति-पत्नी का मधुर मिलन देख कर प्रहसित और घसंतमाला वहाँ से हट कर अन्यत्र चले गए। आमोद-प्रमोद में रात्रि शीघ्र व्यतीत हो गई। उषाकाल में पवनंजय ने कहा--'प्रिये में गुप्त रूप से आया हूँ और अभी गुप्त रूप से ही मुझे छावनी में पहुँचना है । तुम आनन्द में रहना । अब किसी प्रकार की चिन्ता मत करना और अपनी आरोग्यता बढ़ाना । मैं शीघ्र ही विजय लाभ कर आउँगा।" ___ "नाथ ! आप आनन्दपूर्वक पधारें और विजयश्री प्राप्त कर के शीघ्र लौटें । मैं ऋतु-स्नाता हूँ । कदाचित् गर्भ रह जाय, तो अन्य लोग मेरे चरित्र पर शंका करेंगे और मुझ पर कलंक लगावेंगे, तब मैं क्या उत्तर दूंगी ? अपने पारिवारिकजन और दूसरे लोक जानते हैं कि लग्न के साथ ही आपकी मुझ पर पूर्ण विरक्ति रही। आप और में एक क्षण के लिए भी नहीं मिल सके । ऐसी दशा में सन्देह होना स्वाभाविक है। इसलिए आप मातेश्वरी से मिल कर पधारें, तो अच्छा होगा"--अंजना ने निवेदन किया। "नहीं, प्रिये ! उत्सव के साथ विजय प्रयाण करने के बाद मेरा गुप्तरूप से पुनरागमन, पिताजी के मन में सन्देह भर देगा और वे मुझ पर विश्वास नहीं रख सकेंगे। इसलिए मेरा प्रच्छन्न रहना ही उत्तम है । मैं वसंतमाला को समझा दूंगा और लो, यह मेरी नामांकित मुद्रिका । आवश्यकता पड़ने पर इसे दिवा देता। वैसे मैं भी गीघ्र ही लौट आउँगा।" अंजना ने मुद्रिका लेते हुए कहा--"आर्यपुत्र ! आप अवश्य विजयी होंगें। मुझे आपकी विजय में तनिक भी सन्देह नहीं है । अपने स्वास्थ्य और शरीर की संभाल रखते रहें और अपनी दासी पर कृपा भाव रखें।" अंजना ने अश्रुपूरित नयनों से पति को विदा किया। पवनंजय ने वसंतमाला को समझा कर मित्र के साथ प्रयाण किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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