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पवनंजय के साथ अंजनी के लग्न और उपेक्षा
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उन्होंने देखा--वह पक्षिणी, मृणाल को ग्रहण करके भी नहीं खाती और अपने प्यारे के वियोग में तड़प रही है । चक्रवाकी की दशा पर विचार करते, पवनंजय को अपनी पत्नी की दशा का विचार आया । उसने सोचा--' चक्रवाकी अपने पति के एक रात के वियोग से ही इतनी घबड़ा गई, तो अंजना की क्या दशा होगी ? वह तो वर्षों से तड़प रही है । मैने देखा है कि उसकी देह दुर्बल, निस्तेज और दुःखपूर्ण थी । मैने आते समय उसकी अवगणना और अपमान किया। कदाचित् वह इस आघात को सहन नहीं कर सके और देह त्याग दे, क्योंकि अब उसे किसी प्रकार की आशा नहीं रही।"
उपरोक्त विचार आते ही राजकुमार स्वयं चिंतित हो गया। उसकी चिता बहुत बढ़ गई । उसने तत्काल मित्र से परामर्श किया । मित्र ने कहा--
"अब तुमने सही दिशा में विचार किया है । तुम्हारे निष्ठुर व्यवहार को सहन कर वह जीवित रह सकेगी--इसमें सन्देह है। इसलिए तुम अभी जाओ और उसे आश्वस्त करके प्रातःकाल होते यहाँ आ जाओ।"
पवनंजय को अब क्षणभर का विलम्ब भी असह्य हो रहा था। वह उसी समय मित्र को साथ ले कर आकाशगामिनी विद्या के बल से उड़ कर, अंजनासुन्दरी के भवन में आया और द्वार पर ठहर कर देखने लगा। उसने देखा कि--अंजना पलंग पर पड़ी हुई तड़प रही है ! उसके हृदय से निश्वास निकल रहे हैं और हाथ-पाँव पछाड़ रही है । उसकी प्रिय सखी वसंतमाला उसे धीरज बँधा रही है । अचानक अंजना की दृष्टि द्वार पर पड़ी। प्रहसित को खड़ा देख कर वह चौंकी और बोली ; --
“अरे तू कौन है ? यहाँ क्यों आया ? जा भाग यहाँ से ? वसंतमाला ! निकाल इस लुच्चे को यहाँ से। अभी निकाल । इस भवन में मेरे पति के सिवाय दूसरा कोई पुरुष नहीं आ सकता । निकाल धक्का दे कर शीघ्र इस अधम को।"
"युवराज्ञी ! आपकी महापीड़ा का शमन करने के लिए युवराज पवनंजय पधारे है । मैं उसका अभिन्न मित्र आपको बधाई देने के लिए आया हूँ"--पवनंजय उसके पीछे खड़ा देख रहा था।
"भाई प्रमित ! क्या मेरी दशा पर हँसने के लिए तुम यहाँ आये हो । तुम्हें तो आर्यपुत्र के साथ युद्ध में जाना था। तुम यहाँ क्यों आये ? मेरे दुर्भाग्य पर हँसने से तुम्हें क्या मिलेगा ? मैं तो अब इस शरीर को ही शीघ्र त्यागना चाहती हूँ। जाओ भाई ! युद्ध-भूमि में जा कर अपने मित्र को सहायता और रक्षा का कार्य करो। भगवन्! तुम्हारा कल्याण हो ।"
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