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तीर्थकर चरित्र
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शिष्य उन्हें छोड़ कर चले गए थे । किन्तु उन ४९९ सन्तों ने पंथक मुनि को शेलकजी की वैयावृन्य के लिए उनके पास रखा था। पंचक पनि संयम-प्रिय थे, शुद्धाचारी थे । वे अपने असयम गरु की सेवा करते थे और वन्दना-नमस्कार भी करते थे। असंयमी को संयमी सन्त बन्दना करते थे। यह स्थिति विचारणीय है। कुशीलिये को वन्दनादि करना निषिद्ध है। कुर्श लिये को वन्दनादि करने का प्रायश्चित्त आता है (निशीथ सूत्र उ.४.११.१.) किन्तु यह सामान्य स्थिति का विधान होगा। यदि असयमी साध रोमी हो, तो उसकी सेवा करने का विधान भी है। उसकी सेवा करने के पश्चात् यथायोग्य प्रायश्चित्त लेना होता है (व्यवहार सूत्र २.७)
शैलक-चरित्र का उपसंहार करते हुए बाममकार लिखते हैं-"एवामेव समणाउपो............. शलक राजर्षि के समान जो साध-साध्वी कुशीलिया हो कर संयम की उपेक्षा करेंगे, वे बहुत-से साधसाध्वी और श्रावक-श्राविका द्वारा निन्दित होये और अनन्त संसार परिभ्रमण करेंगे।"
जैलकजी की दशा उस समय चरित्रात्मा जैमी नहीं की। वे स्वस्थ एवं सबल हो गए थे, तो भी नहीं सम्मले थे। दूसरी ओर पालो को पिथ्याष्टि हान कर रोषावस्था में ही उसके शिष्य छोड़ कर भ. महावीर के पास पहुँचमा थे। इस स्थिति में दो बातों का जन्तुर दिखाई देना है। एक तो जमाली मिटादृष्टि हो गया था और भय वान का विरोधी भी दूसरे उस के साथ उसके मत से सहमत एमे कुछ साध रहे भी थे। इसलिए बरे. यन्त उसे छोड़ कर चले गए उन्होंने उदित ही किया । यो मध्य के तीर्थंकरों के साधु ऋ प्राज्ञ होते हैं, इसलिये उनकी ममाचारी में थोड़ा अन्तर भी है। फिर भी इतना तो निश्चित्त-सालयता है कि यदि कोई माघ मलिन बन जाय और बह रोहो हो.को माथ के सन्तों द्वारा उसका महमा त्याग कर देना उचित नही है। उसको सेवा करना आवश्यक है जब वह ठीक हो जाय या आयुष्प पूर्ण कर जाय, तव यथायोग्य प्रायश्चित्त के कर शुद्धि करे। यह इस वीरशासन की व्यवहार सूत्रोक्त रीति है।
श्रीशैलकऋषि भव्य थे, सम्यग्दष्टि थे। एक साधारण में निषित से उनकी सुसुप्त आत्मा बाय उठी। वे संमले और ऐसे संशले कि कुक्ति प्राप्त कर ली । उनको बामों पीछे की विरस्ति एवं संयम-कचि तथा साधना अभिनन्दनीय है, किन्तु मध्य में अश्या हुआ कुजोलियापन हेव है।
सोलक-यंबकचारित्र मा बीरतापूर्वक सोचने का है। व्यक्ति या पक्षागत कचि से इसे नहीं देखना चाहिये और कुशीलियापान का रचाव या पुष्टि तो कदापि नहीं करनी चाहिए ।
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