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श्रीकृष्ण ने तीर्थंकर नाम-कर्म - बाँधा
श्रीकृष्ण ने जनता में धर्म-रुचि जगाई और हजारों भव्यात्माओं को निर्ग्रथ प्रव्रज्या प्रदान कराई । उत्कृष्ट भावों से उन्होंने जिनेश्वर भगवंत और महात्माओं की पृथक्-पृथक् विधिवत् वन्दना की। इससे उन्होंने तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन किया । उनका सम्यग्दर्शन निर्मल एवं विशुद्ध था। वे आत्मार्थियों को यथायोग्य सहायता दे कर धर्म में लगाते रहे ।
ढंढण मुनिवर का अन्तराय - कर्म
श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम 'ढंढण' था। वह भी अपनी रानियों के साथ भोगासक्त था । किन्तु भगवान् नेमिनाथ के उपदेश ने उसकी धर्मचेतना जाग्रत कर दी । वह भी दीक्षित हो गया और विधिपूर्वक संयम-तप का पालन करने लगा । वह सभी संतों के अनुकूल रहता और यथायोग्य सेवा करता । उसके अन्तराय-कर्म का उदय विशेष था । वह आहारादि के लिए गोचरी जाता, परन्तु उसे प्राप्ति नहीं होती । कोई-न-कोई बाधा खड़ी हो जाती और उन्हें खाली लौटना पड़ता और ऐसा योग बनता कि अन्य जो साधु उनके साथ जाते, उन्हें भी खाली हाथ लौटना पड़ता । उनकी ऐसी स्थिति देख कर कुछ मुनियों ने भगवान् से पूछा:
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'प्रभो ! ढंढण मुनिजी श्रीकृष्ण के पुत्र है निग्रंथ-धर्म का पालन कर रहे हैं । द्वारिकावासियों में न धर्म-प्रेम की कमी है न औदार्य गुण की न्यूनता है और न दुष्काल है । फिर इन ढंढण मुनि को बाहारादि क्यों नहीं मिलता और इनके साथ जाने वाले साधु को भी खाली पात्र क्यों लौटना पड़ता है ? जब कि अन्य सभी मुनियों को यथेच्छ वस्तु प्राप्त होती है ?"
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भगवान् ने कहा :
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'ढण मुनि के अन्तराय - कर्म का विशेष उदय है। ये पूर्वभव में मगध देश के धान्यपूरक नगर के राजा के सेवक थे । 'पारासर' इनका नाम था । वे ग्राम्यजनों से राज्य के खेत जुतवाते और परिश्रम करवाते, किन्तु भोजन का समय होने पर और भोजन आने पर भी ये उन श्रमिकों को छुट्टी नहीं देते और उन्हें कहते – “तुम हल से खेत में एक-एक चक्कर और लगा कर हाँक दो, फिर छुट्टी होगी । भोजन कहीं भागा नहीं जा रहा है ।"
वे भूखे भ्यासे श्रमिक और वैल, मन मार कर फिर काम खिंचने लगते । इस
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